SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 351
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ _३४६ मूलसूत्र : एक परिशीलन सिंहगिरि ने भी अपने जीवन का सन्ध्याकाल जानकर वीर निर्वाण सं. ५४८ (विक्रम सं. ७८) में आर्य वज्र मुनि को आचार्यपद पर नियुक्त किया ।१९२ आचार्य वज्र स्वामी कुशलतापूर्वक संघ का नेतृत्व करते हुए ५०० श्रमणों के साथ भारत के विभिन्न अंचलों में विचरण करने लगे । १९३ एक बार आचार्य वज्र स्वामी पाटलिपुत्र पधारे। वहाँ के राजा ने उनका भव्य स्वागत और अभिवन्दन किया। पाटलिपुत्र की जनता उनके पावन प्रवचन सुनकर बहुत ही प्रभावित हुई । क्षीरास्रव-लब्धि और रूपपरावर्तन-लब्धि के धारक वज्र स्वामी के रूप और गुणों की प्रशंसा चारों ओर फैल रही थी । वहाँ के विपुल धन-सम्पन्न धन श्रेष्ठी की रूपवती कन्या रुक्मिणी ने मन ही मन प्रतिज्ञा ले ली कि मैं वज्र स्वामी के साथ ही पाणिग्रहण करूँगी, अन्यथा मैं अग्नि- ज्वाला की शरण ग्रहण करूँगी । पुत्री की चिन्ता से व्यथित धनश्रेष्ठी शतकोटि सम्पत्ति और पुत्री रुक्मिणी को साथ में लाकर आचार्य वज्र स्वामी के पास पहुँचे और उन्हें शतकोटि धन लेकर अपनी रूपवती पुत्री को स्वीकार करने की प्रार्थना की। किन्तु आचार्य वज्र स्वामी किसी भी मूल्य पर इस प्रलोभन के आगे नहीं झुके । प्रत्युत धन श्रेष्ठी को कामभोगों से होने वाले महाविनाश का स्वरूप समझाया । धनश्रेष्ठी को समझाया कि यदि तुम्हारी पुत्री मुझ पर अनुरक्त है तो वह ज्ञान, दर्शन, चारित्र से युक्त श्रमणधर्म का स्वीकार करके मेरा अनुसरण करे । १९४ आचार्य वज्र स्वामी के उपदेश से प्रभावित होकर रुक्मिणी ने आर्हती दीक्षा ग्रहण की। आचार्य वज्र स्वामी ने आचारांगसूत्र के महापरिज्ञा अध्ययन से गगनगामिनी विद्या प्राप्त की थी। .१९५ एक बार वे पूर्व भारत से विहार करके उत्तर भारत में पधारे। उस समय वहाँ भयंकर दुष्काल होने से जनता क्षुधा से पीड़ित थी । उस समय उन्होंने अपनी विद्या के बल पर एक विशाल चद्दर बिछा दी और शय्यातर सहित सारे संघ को उस चद्दर पर बिठाकर उत्तर भारत की महापुरी नगरी में लाए। वहाँ पर भी राजनैतिक संकट उपस्थित होने से वे संघ को आकाशमार्ग से माहेश्वरी उद्यान में ले गये। वहाँ सबने पर्युषण पर्व की सम्यक् आराधना की। उस अवसर पर हजारों लोगों ने जैनधर्म स्वीकार किया। इस प्रकार धर्मशासन की प्रभावना करते हुए वे दक्षिणांचल में पधारे। १९६ वहाँ एक बार कफज व्याधि की शान्ति के लिए लाया हुआ सौंठ का टुकड़ा वापस देना भूल जाने से उन्हें अपनी स्मृति क्षीणता का भान तथा आयुष्य की For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy