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________________ नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन ३४५ * इसीलिए नन्दी स्थविरावली में कहा गया है-“तव-नियम-गुणेहिं वइरसमं।" अर्थात् तप, नियम आदि गुणों से सम्पन्न वज्र के समान सुदृढ़ आचार्य वज्र स्वामी को वन्दन करता हूँ। उनके इन गुणों की कई बार कसौटी हुई, उसमें वह पूर्णतया उत्तीर्ण हुई। एक बार आचार्य सिंहगिरि वज्र मुनि आदि के साथ विहार करते हुए किसी पर्वत की तलहटी में पहुँचे, तभी घनघोर वर्षा शुरू हो गई। वर्षा से बचने के लिए वे गिरि-गुफाओं में प्रविष्ट हुए। तभी वज्र मुनि के पूर्वभव के मित्र जृम्भकदेव ने वैक्रिय-शक्ति से वहाँ पटमण्डप बना दिया और आहार बनाया। वज्र मुनि को आहार लेने के लिए भेजने की देव ने एक श्रेष्ठी के रूप में आकर विनती की। वज्र मुनि वर्षा बन्द होने पर वे पहुंचे तो उपयोग लगाकर देखा कि वह आहार देवपिण्ड है, आधाकर्मी-दोषयुक्त है। अतः ग्रहण नहीं किया। एक बार ग्रीष्म ऋतु में भिक्षा के लिए घूम रहे थे। जृम्भकदेव ने मानव रूप बनाकर भवन में पधारने और आहार लेने की प्रार्थना की। किन्तु भवन में प्रविष्ट होते ही देव ने मिठाई से भरा थाल प्रस्तुत किया। मगर वज्र मुनि ने देवभिक्षु समझकर ग्रहण नहीं किया। देव ने वज्र मुनि की जागरूकता को देखकर प्रसन्न होकर गगनगामिनी विद्या प्रदान की। ___ वज्र मुनि श्रुत सम्पदा के धनी थे। उन्हें पदानुसारिणी लब्धि प्राप्त हो गई थी जिससे वे एक पद सुनकर उससे सम्बन्धित सौ पद का स्मरण कर लेते थे। एक बार आचार्य सिंहगिरि शौचार्थ बाहर गये हुए थे। उपाश्रय में एकाकी वज्र मुनि ही थे। उन्हें आगम-वाचना देने की भावना जागी। श्रमणों के उपकरणों को प्रतीक रूप में श्रमण मानकर रखे और वाचना देना प्रारम्भ किया। आगम-वाचना देने में इतने तल्लीन हो गए कि उन्हें समय का ध्यान नहीं रहा। आचार्यश्री के आगम की गाथाओं के अर्थ सुने तो वे भाव-विभोर हो गए कि कितनी स्पष्ट व्याख्या और विवेचन है। आर्य वज्र की ज्ञान-गरिमा देखकर वे प्रसन्न हुए। आर्य सिंहगिरि के विहार करने के बाद आगमपाठी मुनियों को वाचना का कार्य वज्र मुनि ने सँभाला। प्रतिभा के धनी, आर्य वज्र का पूर्वो को विशेष अध्ययन करने हेतु सिंहगिरि आचार्य ने आचार्य भद्रगुप्त के पास भेजा। आर्य वज्र को पाकर वयोवृद्ध आचार्य भद्रगुप्त को प्रसन्नता हुई। उन्होंने वज्र मुनि को दशपूर्वो तक का अध्ययन कराया। अध्ययन पूर्ण करके ये पुनः आचार्य सिंहगिरि के पास पहुँचे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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