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नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * ३३७.
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करने वाले को गणाचार्य तथा गण की शैक्षणिक व्यवस्था सँभालने वाले को वाचनाचार्य कहा जाने लगा। गणाचार्य परम्परा को गणधर वंश कहा गया। इस कारण युगप्रधान आचार्यों की परम्परा एक गण से ही सम्बन्धित नहीं रही। कई गणों में युगप्रधान प्रभावशाली साधक हुए। कौशिक गोत्रीय आर्य बलिस्सह : ग्यारहवें पट्टधर __ आचार्य बलिस्सह अपने युग के एक प्रभावशाली आचार्य थे। ये महागिरि आचार्य के आठ प्रमुख शिष्यों में से एक थे। इनका गोत्र काश्यप था। आर्य महागिरि के स्वर्गवासी होने के पश्चात् ये श्रुत-सम्पन्न होने के कारण वाचनाचार्य के रूप में नियुक्त हुए। आचार्य बलिस्सह के गण की प्रसिद्धि उत्तर बलिस्सह के नाम से है। आचार्य बलिस्सह के ज्येष्ठ गुरुभ्राता का नाम ‘बहुल' था, उनका उपनाम ‘उत्तर' था। अतः दोनों गुरुभ्राताओं के नाम पर गण का नाम उत्तर बलिस्सह पड़ा।१७५ आचार्य देववाचक ने आचार्य बलिस्सह को वन्दन करते हुए कहा
“तत्तो कोसियगोत्तं बहुलस्स सरिव्वयं वंदे। १७६ हिमवन्त स्थविरावली के अनुसार सम्राट् खाखेल ने कुमारगिरि पर्वत पर श्रमण-सम्मेलन का भव्य आयोजन किया था। उस सम्मेलन में आचार्य बलिस्सह समुपस्थित थे। उन्होंने विद्यानुप्रवाद पूर्व से अंगविद्या-जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना की। कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार उत्तरबलिस्सह गण से चार शाखाएँ निकली हैं-(१) कौसम्बिका, (२) सूक्तिमती, (३) कोडवाणी, और (४) चन्दनागरी।१७७ आचार्य बलिस्सह का काल वीर निर्वाण २४५ (विक्रम पूर्व २२५) माना जाता है। हारित गोत्रीय आर्य स्वाति एवं आर्य श्याम : बारहवें-तेरहवें पट्टधर
आर्य स्वाति एवं आर्य श्याम दोनों हारित गोत्रीय थे। आर्य स्वाति आर्य बलिस्सह के शिष्य थे। आर्य श्याम आर्य स्वाति के शिष्य थे। जैन परम्परा में कालक नाम के चार आचार्य हुए हैं। उनमें प्रथम कालक--आचार्य श्यामाचार्य के नाम से विश्रुत हैं। श्यामाचार्य को हो देववाचकगणी ने वाचनाचार्य माना है। आचार्य प्रभाचन्द्र ने श्यामाचार्य को आचार्य गुणाढ्य के पश्चात् युगप्रधान आचार्य माना है। आप अपने युग के द्रव्यानुयोग-व्याख्याता युगप्रधान एवं
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