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________________ * ३३८ * मूलसूत्र : एक परिशीलन महाप्रभावक आचार्य थे। आपका जन्म वीर निर्वाण सं. २८० (विक्रम पूर्व १९०) में हुआ। आपने वीर निर्वाण सं. ३०० (विक्रम पूर्व १७०) में आर्हती दीक्षा ग्रहण की। उस समय आप २० वर्ष के थे। 'रत्नसंचय प्रकरण' के अनुसार-आपकी प्रकृष्ट प्रतिभा से प्रभावित होकर चतुर्विध संघ ने आपको वीर निर्वाण सं. ३३५ (विक्रम पूर्व १३५) में युगप्रधान आचार्य के पद पर प्रतिष्ठित किया।१७८ आपने ४१ वर्ष तक युगप्रधानाचार्य और वाचनाचार्य रहकर जिनशासन की प्रबल प्रभावना की। द्रव्यानुयोग के विशिष्ट ज्ञाता श्यामाचार्य ने प्रज्ञापना-जैसे विशाल आगम की रचना की। उपांग-साहित्य में प्रज्ञापना का विशिष्ट स्थान है। इसमें विविध विषयों पर पृथक्-पृथक् ३६ पद हैं। और जीव, कर्म, भाषा, ज्ञान आदि पृथक्-पृथक् विषयों का व्यवस्थित ढंग से इसमें संयोजन किया गया है।१७९ आचार्य श्याम की प्रज्ञा प्रखर एवं निर्मल थी, इस कारण प्रज्ञापनासूत्र को आगमों में गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ। 'विचारश्रेणी' में उल्लेख है कि श्यामाचार्य निगोद के विशिष्ट व्याख्याकार थे। एक बार सौधर्मेन्द्र ने सीमन्धर स्वामी से निगोद विशिष्ट व्याख्या सुनी। इस पर उन्होंने सीमन्धर स्वामी से पूछा-"भगवन् ! क्या भरत क्षेत्र में भी निगोद के सम्बन्ध में इस प्रकार की व्याख्या करने वाला कोई आचार्य, उपाध्याय या श्रमण है?'' सीमन्धर स्वामी ने आचार्य श्याम का नाम प्रस्तुत किया। सौधर्मेन्द्र वृद्ध ब्राह्मण के वेश में आचार्य श्याम के पास आए। उन्होंने आचार्य का ज्ञान-बल जानने हेतु अपना हाल उनके सामने रखा। __ आचार्य श्याम ने गम्भीर दृष्टि से उनकी ओर देखकर कहा-“तुम मानव नहीं, देव हो।" फिर सौधर्मेन्द्र ने निगोद के सम्बन्ध में अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत की। आर्य श्याम से निगोद की सांगोपांग व्याख्या सुनकर सौधर्मेन्द्र ने कहा“मैंने निगोद के सम्बन्ध में जैसा विवेचन सीमन्धर स्वामी से सुना, वैसा ही विवेचन आपसे सुनकर बहुत ही प्रभावित हुआ हूँ।" इन्द्र (सौधर्मेन्द्र) की रूप-सम्पदा को निहारकर कोई श्रमण निदान न कर ले, इस दृष्टि से भिक्षाचरी के लिए गये हुए मुनियों के आगमन से पूर्व ही सौधर्मेन्द्र श्यामाचार्य की प्रशंसा करते हुए जाने लगा। श्यामार्य ने कहा-"जरा रुक जाओ, शिष्यों को आने दो।' सौधर्मेन्द्र ने कहा-“मैं इस समय रुक नहीं सकता। आचार्य के निर्देश से सौधर्मेन्द्र ने उपाश्रय का द्वार पूर्वाभिमुख से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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