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________________ १.१२६ ४ मूलसूत्र : एक परिशीलन सके। जब वहाँ के क्षेत्र श्रमणों के विहार के योग्य हो गए तो सम्प्रति ने आचार्यश्री से अपने श्रमणों को उन-उन सुलभ क्षेत्रों में भेजने की प्रार्थना की। इस प्रकार राजकुमार सम्प्रति ने धर्म-प्रचार में सहयोग देकर धर्म-प्रभावना की।१७३ एक बार आर्य सुहस्ती वाहनकुट्टी नामक स्थान में विराजे हुए थे, तब रात्रि के प्रथम प्रहर में नलिनीगुल्म नामक अध्ययन का स्वाध्याय कर रहे थे कि अवन्ति सुकुमाल ने सुना तो उसे यह सुपरिचित लगा।७४ ऊहापोह करते-करते जातिस्मरण ज्ञान हो जाने से अपना पूर्वभव जाना कि मैं पूर्वभव में नलिनीगुल्म विमान में था। उसे यह धुन लगी कि मुझे नलिनीगुल्म विमान में देव बनना है। आचार्यश्री के पास आकर साधु-दीक्षा ग्रहण करने की उत्कट इच्छा प्रगट की। आचार्यश्री ने संयममार्ग की कठोरता और उसकी सुकुमारता का प्रतिपादन करके समझाया। उसके दृढ़ आग्रह को देखकर आचार्यश्री ने दीक्षा का पाठ पढ़ाया। दीक्षा लेते ही उसने यावजीवन अनशन व्रत ग्रहण किया और श्मशान भूमि में पहुँच गया। नंगे पैर चलने से पैरों से रक्त की धाराएँ बहने लगीं। एक रक्तपिपासु सियारनी कायोत्सर्गस्थ मुनि के पास पहुँची और क्रमशः प्रथम पहर में मुनि के पैर, दूसरे पहर में जंघा, तीसरे पहर में उदर और चौथे पहर में समूचे शरीर को खा गई। मुनिवर उत्तरोत्तर विशुद्ध भावों में आगे बढ़ते गए और वहाँ से कालधर्म प्राप्त कर नलिनीगुल्म विमान में देव बने। उनकी गृहस्थ-पक्षीया ३२ पत्नियों में से ३१ पत्नियों ने दीक्षा ग्रहण कर ली। आचार्य सुहस्ती ही इन सबके संयममार्ग के प्रेरक बने। ___ आर्य सुहस्ती का शिष्य-परिवार अत्यधिक विशाल था। कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार उनके शिष्य स्थविरों से अनेक गण बने। स्थविर रोहण से उद्देहगण, स्थविर श्रीगुप्त से चारणगण, भद्र से उडुपाटितगण, ऋषिगुप्त से मानवगण, कामर्धि से वेशपाटिकगण तथा अन्य अनेक अवान्तरगण भी निकले। आर्य सुहस्ती के समय जैनधर्म का बहुत प्रचार, प्रसार और विकास हुआ। अवन्ति और सौराष्ट्र में जैनधर्म का प्रभाव बढ़ा। आर्य सुहस्ती ने ३० वर्ष की उम्र में दीक्षा ग्रहण की और ७० वर्ष की वय तक संयम की आराधना की। वीर निर्वाण सं. २९२ (विक्रम पूर्व १७८) में आपका अवन्ति में स्वर्गवास हुआ। आर्य सुहस्ती तक एक मात्र आचार्य ही गण के अनुशासन की और शिक्षण की दोनों व्यवस्थाएँ सँभालते थे। परन्तु आचार्य सुहस्ती के पश्चात् गण की रक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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