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________________ * ३३४ * मूलसूत्र : एक परिशीलन किये।६७ जब आर्य सुहस्ती मिले, तब उन्होंने कहा-“उस दिन वसुभूति श्रेष्ठी के यहाँ आपने जो मेरा सम्मान किया, उसके कारण मेरे लिए उनके घर का आहार अनेषणीय बन गया।" आर्य सुहस्ती ने नतमस्तक होकर अपनी भल के लिए उनसे क्षमा माँगी और भविष्य में इस भूल की पुनरावृत्ति नहीं होगी, ऐसा वचन दिया। इससे यह स्पष्ट है कि वे कितने कठोर अभिग्रहधारी श्रमण थे।१६८ कल्पसूत्र की स्थविरावली में आर्य महागिरि के ८ प्रमुख शिष्यों का उल्लेख है-(१) उत्तर, (२) बलिस्सह, (३) धनाक्ष्य, (४) श्रीआढ्य, (५) कौण्डिन्य, (६) नाग, (७) नागमित्र, और (८) रोहगुप्त। इनमें से उत्तर और बलिस्सह ये बहुत ही प्रभावशाली थे। उनसे कौशाम्बिक, शुक्तिमतिका, कोडवानी और चन्द्रनागरी; ये चार शाखाएँ निकली और रोहगुप्त से त्रैराशिक मत प्रकट हुआ। निह्नव परम्परा में रोहगुप्त का छठा क्रम है।६९ ।। __ आर्य महागिरि ३० वर्ष की वय में श्रमण बने और ७० वर्ष की आयु में आचार्यपद पर प्रतिष्ठित हुए। तत्पश्चात् ३० वर्ष तक आचार्यपद का गौरवपूर्ण निर्वाह कर वीर निर्वाण सं. २४५ (विक्रम पूर्व २२५) में मालव प्रदेश के गजेन्द्रपुर नगर में वे स्वर्गवासी हुए। एलापत्य गोत्रीय आर्य सुहस्ती : दसवें पट्टधर ___ वाशिष्ठ गोत्रीय आर्य सुहस्ती का जन्म वीर निर्वाण सं. १९१ (विक्रम पूर्व २७९) में हुआ। उन्होंने तीस वर्ष की वय में आचार्य स्थूलभद्र के पास दीक्षा ग्रहण की। किन्तु आचार्य स्थूलभद्र का स्वल्प समय के पश्चात् स्वर्गवास हो जाने से उन्होंने आर्य महागिरि के पास पूर्वो का अध्ययन किया। वीर निर्वाण सं. २४५ (विक्रम पूर्व २२५) में वे आचार्यपद पर आसीन हुए। ___ आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार वे एक बार कौशाम्बी पधारे, उस समय वहाँ भयंकर दुष्काल था। एक भिखारी को कई दिनों से खाने को कुछ नहीं मिला। वह भिक्षाटन के लिए जा रहे श्रमणों के पीछे-पीछे चला। श्रमणों को एक श्रेष्ठी ने अपने यहाँ श्रद्धा-भक्तिपूर्वक स्वादिष्ट भोजन-सामग्री प्रदान की। रास्ते में चलते समय उसने श्रमणों से कहा-“आपको जो भोजन-सामग्री मिली है, उसमें से मुझे भी कुछ दें।" श्रमणों ने कहा-"हम गुरु आदेश के बिना कुछ भी नहीं दे सकते।' वह भिखारी श्रमणों के साथ उपाश्रय में आया और आचार्य सुहस्ती से भोजन की याचना की। आचार्य सुहस्ती ने उसका चेहरा देखा और ज्ञानोपयोग से जाना कि यह रंक भविष्य में जिनशासन का आधार बनेगा।१७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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