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________________ नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * ३३३ * उत्तराधिकार प्रदान किया।६३ किन्तु आर्य सुहस्ती और आर्य महागिरि में परस्पर वात्सल्य की अत्यधिकता के कारण दोनों साथ-साथ विचरण करते थे।१६४ आर्य महागिरि आगमों के गम्भीर ज्ञाता थे। उन्होंने अनेक श्रमणों को आगम की वाचनाएँ प्रदान की।१६५ आर्य सुहस्ती-जैसे मेधावी आचार्य भी उन्हें अपने गुरु-सदृश मानकर उनका सम्मान करते थे। एक दिन आर्य महागिरि के अन्तःकरण में यह चिन्तन स्फुटित हुआ कि 'आत्म-विशुद्धि की महती साधना-जिनकल्प है, जो इस समय विच्छिन्न है, तथापि वह तप भी पूर्वबद्ध कर्मों को नष्ट कर सकता है। मेरे अनेक मेधावी शिष्य सूत्र और अर्थ के पूर्ण ज्ञाता हो चुके हैं और आर्य सुहस्ती संघ का दायित्व वहन करने में समर्थ हैं। अतः मैं उन्हें गण का भार सौंपकर जिनकल्पतुल्य साधना में संलग्न हो जाऊँ।' फलतः संघ का दायित्व आर्य सुहस्ती को सौंपकर आर्य महागिरि श्मशान भूमि में जाकर साधना में तल्लीन हो गए।१६६ उनके द्वारा धारण किये गए अनेक अभिग्रहों में से आहार का अभिग्रह विशेष कठोर था। 'उपदेशमाला' की बृहद् वृत्ति में उनके आहार से सम्बन्धित अभिग्रह का एक प्रसंग है-एक बार पाटलिपुत्र के वसुभूति श्रेष्ठी को विशेष उपदेश देने हेतु आर्य सुहस्ती वहाँ पधारे। उस समय आर्य महागिरि भी अनायास ही उक्त श्रेष्ठी के यहाँ पधार गए। उन्हें देखते ही आर्य सुहस्ती ने उठकर उन्हें वन्दन किया। जब आर्य महागिरि लौट गए तो श्रेष्ठी ने पूछा-“क्या ये महामुनि आपके गुरु हैं ?' आर्य सुहस्ती ने कहा-“हाँ, ये मेरे गुरु हैं; विशिष्ट साधक और घोर तपस्वी हैं। गृहस्थ के यहाँ जो आहार नीरस, रूक्ष और फेंकने योग्य होता है, उसे ही ये ग्रहण करते हैं।" आर्य सुहस्ती के इस प्रकार कहने पर वसुभूति श्रेष्ठी के मन में आर्य महागिरि के प्रति श्रद्धा-भक्तिभाव जगा। उन्होंने अपने पारिवारिक जनों से कहा कि ये (आर्य महागिरि) महान् तपस्वी कदाचित् अपने यहाँ भिक्षा के लिए पधारें तो इनके अभिग्रह की पूर्ति यों कहकर करना कि “हम यह भोजन बाहर फेंकने वाले हैं, आप इसे ग्रहण कीजिए।' एक दिन आर्य महागिरि श्रेष्ठी के यहाँ भिक्षा के लिए पधारे। श्रेष्ठी के यहाँ बढ़िया मोदक तैयार रखे थे। उसके परिजनों ने कहा-“महामुने ! हमने बहुत ही बढ़िया भोजन कर लिया है। अतः इन मोदकों की इच्छा नहीं रही और हम इन्हें बाहर फेंकने वाले ही थे। अच्छा हुआ, आप पधार गए। आप इन्हें ग्रहण कीजिए।" इस प्रकार अनुनय-विनय करने पर भी आर्य महागिरि ने वे मोदक ग्रहण नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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