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________________ नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन ३२३ करालकाल-सम विकराल तलवार देखकर उपाध्याय ने काँपते हुए कहा"अर्हत् धर्म ही यथार्थ तत्त्व है ।" शय्यंभव भट्ट अभिमानी होने के साथ-साथ जिज्ञासु भी थे । वे जैन श्रमणों की खोज करते हुए आर्य प्रभव के पास पहुँच गये। प्रभव ने उन्हें यज्ञ का अध्यात्मपरक यथार्थ स्वरूप समझाया और अध्यात्म तत्त्व की विशद् व्याख्या की । आचार्य प्रभव की पीयूषवर्षिणी अध्यात्म सुधा सम्पृक्त वाणी सुनकर उन्होंने सम्यक् बोध प्राप्त किया और आचार्य प्रभव के पास आर्हती दीक्षा ग्रहण की। पत्नी का त्याग करके साधु बन जाने की बात राजगृह के पूरे ब्राह्मणवर्ग में विद्युत् प्रवाह की तरह फैल गई। वे आपस में चर्चा करने लगे- “ अहो ! शय्यंभव भट्ट निष्ठुरातिनिष्ठुर व्यक्ति निकला, जो अपनी नवयौवना पत्नी का त्यागकर साधु बन गया । " १३९ नारी के लिए पति के अभाव में पुत्र का आलम्बन होता है । परन्तु मालूम होता है, वह आलम्बन भी इसे प्राप्त न हो सका । 44 एक दिन अड़ौस - पड़ौस की महिलाओं ने शय्यंभव की पत्नी से पूछ लिया - "सरले ! क्या पुत्र की सम्भावना है ?” उसने लज्जा और संकोचवश संक्षिप्त-सा उत्तर दिया- "मणगं ( मनाक् ); अर्थात् हाँ, कुछ है ।" उक्त शब्द सुनकर शय्यंभव के परिजनों को सन्तोष हुआ । समयानुसार जब पुत्ररत्न उत्पन्न हुआ तो सभी ने उसकी माँ के मुख से निकले हुए मधुर कर्णप्रिय शब्द (मनक) का अनुसरण करके, शिशु का 'मनक' नाम रखा। शय्यंभव भट्ट का यह पुत्र मनक के रूप में प्रसिद्ध हो गया। माँ ने अत्यन्त स्नेहवश पालन-पोषण किया। जब मनक ८ वर्ष का हुआ तो एक बार अपनी माँ से पूछा - "मेरी प्यारी अच्छी माँ ! मैंने अपने पिता को कभी नहीं देखा, बताओ मेरे पिता कहाँ हैं ?" माँ ने अपने उमड़ते अश्रुओं को बलात् रोकते हुए अत्यन्त धैर्य के साथ कहा- “ वत्स ! जैसे तूने अपने पिता को नहीं देखा, वैसे ही तेरे पिता ने भी तुझे नहीं देखा है । वे तेरे जन्म से पूर्व ही जैन मुनि बन गये हैं ।" माँ की बात सुनकर मनक के मन में पितृ-दर्शन की भावना प्रबल हो उठी । वह अपनी माता की अनुमति लेकर पिता की खोज में इधर-उधर भटकता हुआ चम्पानगरी में पहुँच गया। शौच निवृत्ति के लिए गये हुए आचार्य शय्यंभव वापस लौट रहे थे कि उन्होंने मनक की अपनी-सी मुखाकृति देखकर समझ लिया कि यह मेरा गृहस्थ-पक्षीय पुत्र है । जब मनक ने पूछा - "मेरे पिता आचार्य शय्यंभव कहाँ हैं ? क्या आप उन्हें जानते हैं ?" आचार्य ने कहा- " वत्स ! मैं तुम्हारे पिता को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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