________________
* ३२४ * मूलसूत्र : एक परिशीलन
जानता हूँ। वे मेरे से अभिन्न हैं। तुम मुझे अपना पिता ही समझो।' बालक मनक उनके साथ उपाश्रय में आया। वहाँ श्रुति परम्परा से पता चला कि ये ही मेरे पिता आचार्य शय्यंभव हैं तो हर्ष से गद्गद होकर ८ वर्ष की अल्पायु में ही उसने श्रमण-दीक्षा अंगीकार कर ली। न तो उसे उपदेश की अधिक आवश्यकता पड़ी और न ही प्रेरणा की। दशवैकालिकसूत्र की रचना का आधार और प्रयोजन
आचार्य शय्यंभव चतुर्दश पूर्वधारी थे। बालक के लक्षण और उसकी हस्तरेखा देखकर उन्होंने जान लिया कि इस बालक श्रमण की आयु मात्र ६ मास ही अवशिष्ट है। अतः इस स्वल्पकाल में ही ज्ञान और क्रिया दोनों का सम्यक् आराधन कर आत्म-कल्याण कर सके, इसके लिए आत्म-प्रवाद पूर्व से दशवैकालिकसूत्र का निर्वृहण किया।° इस सूत्र में १० अध्ययन हैं, जिसमें मुनि-जीवन की समग्र आचार-संहिता का निरूपण हुआ है। यह सूत्र उत्तरवर्ती नवीन मोक्षार्थी साधकों के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुआ है। इसकी गणना ४ मूलसूत्रों में की गई है। आचार्य भद्रबाहु की दशवैकालिकनियुक्ति के अनुसार इस सूत्र के चतुर्थ अध्ययन का निर्वृहण आत्म-प्रवाद पूर्व से, पंचम अध्ययन का निर्वृहण कर्म-प्रवाद पूर्व से, सप्तम अध्ययन का नि!हण सत्य-प्रवाद पूर्व से
और अवशिष्ट अध्ययनों का निर्वृहण नवमें प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु से हुआ है। इस आगम की रचना वीर निर्वाण ८० में हुई थी।४१
मुनि मनक ने ६ मास के स्वल्पकाल में श्रमणधर्म की आराधना कर समाधिपूर्वक आयुष्य पूर्ण कर स्वर्ग की राह ली। मनक की स्वल्पकालीन साधना के साथ देह-त्याग के प्रसंग ने अत्यन्त धैर्यवान आचार्य शय्यंभव के दिल को उद्वेलित कर दिया। उनकी आँखों से दो अश्र-बिन्द धरती पर लुढ़क पड़े।०२ यशोभद्र आदि मुनियों ने उनसे इस खिन्नता का कारण पूछा तो आचार्य ने कहा"यह मेरा गृहस्थ-पक्षीय पुत्र था। पुत्र-मोह ने मुझे क्षणभर के लिए विह्वल कर दिया।" यशोभद्र आदि मुनियों ने कहा-“भगवन् ! आप हमें पहले ही बता देते तो हम उसकी सम्यक् परिचर्या व सेवा-शुश्रूषा करते।' आचार्य ने उत्तर में कहा-“मुनिवरो ! मैंने यह रहस्य इसलिए नहीं खोला कि फिर आचार्यपुत्र समझकर कोई इससे सेवा-शुश्रूषा-परिचर्या नहीं करवाता तथा यह सेवाधर्म के लाभ से वंचित रह जाता। इस बाल-मुनि की अल्पायु जानकर ही मैंने पूर्वश्रुत से सार उद्धृत करके इस छोटे से सूत्र की रचना की। अब वह प्रयोजन नहीं रहा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org