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________________ * ३२२ मूलसूत्र : एक परिशीलन वत्स गोत्रीय आचार्य शय्यम्भव : चतुर्थ पट्टधर भगवान महावीर के तृतीय पट्टधर आचार्य प्रभव स्वामी हुए। उनके पश्चात् वीर निर्वाण सं. ७५ में चतुर्थ पट्टधर आचार्य शय्यंभव हुए। आपका जन्म वत्स गोत्रीय ब्राह्मण परिवार में वीर निर्वाण सं. ३६ (विक्रम पूर्व ४३४ ) में राजगृह हुआ था। जिस समय शय्यंभव ने २८ वर्ष की वय में आचार्य प्रभव स्वामी के उपदेश से प्रभावित होकर मुनि दीक्षा ग्रहण की, उस समय उनकी युवा पत्नी गर्भवती थी । आचार्य प्रभव ९४ वर्ष की आयु में आचार्यपद पर आसीन हुए थे। उनके जीवन का यह सन्ध्याकाल था । पिछली रात्रि में उनके अन्तर्मानस में यह विचार उद्बुद्ध हुआ कि मेरे बाद गणभार - वाहक कौन होगा? उन्होंने अपने समूचे श्रमणसंघ, श्रावकसंघ एवं जैनसंघ पर गहराई से दृष्टिपात किया, किन्तु उनकी दृष्टि में आचार्यपद के योग्य कोई भी व्यक्ति नहीं ठहरा । अन्त में, उनका ध्यान वेदविज्ञ याज्ञिक शय्यम्भव पर केन्द्रित हुआ । १ ३८ यद्यपि शय्यम्भव आचार्यपद के सर्वथा योग्य प्रतीत हो रहे थे, किन्तु जैनधर्म-दर्शन के कट्टर विरोधी, स्वज्ञानगर्विष्ठ वेदविज्ञ ब्राह्मण को कैसे समझाया और मनाया जाये ? अतः दूसरे ही दिन आचार्य प्रभव स्वामी अपनी साधु- मण्डली के साथ विहार करते हुए राजगृह पधारे। वहाँ जाकर आपने अपने दो साधुओं को आदेश दिया कि तुम दोनों शय्यंभव ब्राह्मण की यज्ञशाला में भिक्षार्थ जाओ और जब वे भिक्षा न दें तो तुम उच्च स्वर से निम्नोक्त श्लोक - पंक्ति सुनाकर वापस लौट आना'अहो कष्टमहो कष्टं, तत्त्वं विज्ञायते नहि।" 1 - अहो ! बड़े खेद की बात है कि तत्त्व नहीं जाना जा रहा है श्रमण-युगल ने आचार्य के संकेतानुसार वैसा ही किया । तत्त्व को नहीं जानने की बात सुनकर उद्भट विद्वान् शय्यंभव का दर्परूपी सर्प फुफकार उठा। सोचा- 'ये उपशान्त तपस्वी असत्य नहीं बोलते।' अतः सत्य क्या है ? यह जानने के लिए वे नंगी तलवार हाथ में लेकर यज्ञानुष्ठान कराने वाले उपाध्याय के पास पहुँचे और उनसे 'तत्त्व क्या है ?' यह पृच्छा की । उपाध्याय ने कहा"स्वर्ग और अपवर्ग को देने वाले वेद ही परम तत्त्व हैं।" शय्यंभव ने कहा- “ये निष्परिग्रही, ममत्वरहित शान्त महर्षि असत्य नहीं कहते । तुम मुझे सत्य - सत्य कहो कि 'तत्त्व क्या है ?' अन्यथा, इस तलवार से तुम्हारा शिरोच्छेद कर दूँगा।” Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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