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________________ नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * ३२१ * -.-.-.-.-.-.-.-...-.-- -- तू इनके द्वारा वमित भोगों और सुख-साधनों के पीछे कुत्ते की भाँति टूट रहा है ! इस धन के लिए तूने क्या-क्या पाप नहीं किये ? धिक्कार है तुझे ! " प्रभव स्वयं को धिक्कारता हुआ अन्तरतम में गहरा उतर गया। उसे धन से तथा सुखोपभोगों से विरक्ति हो गई। वह जम्बू को प्राप्त अपार धनराशि लूटने आया था, किन्तु स्वयं पूर्णतः लुट गया ! उसने जम्बू के चरणों में नतमस्तक होकर अपने अपराध की क्षमा माँगी और जम्बूकुमार के समक्ष अपने ५०० साथियों सहित दीक्षा लेने की इच्छा व्यक्त की। इस प्रकार वीर निर्वाण सं. १ (विक्रम पूर्व ४६९) के दिन अपने ५०० साथियों सहित प्रभव ने जम्बूकुमार आदि के साथ आचार्य सुधर्मा स्वामी से भागवती दीक्षा ग्रहण की। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार-प्रभव की दीक्षा जम्बू की दीक्षा के एक दिन बाद हुई। प्रभव उम्र की दृष्टि से जम्बू से ज्येष्ठ और दीक्षा की दृष्टि से कनिष्ठ थे। दीक्षा ग्रहण काल में जम्बू की आयु १६ वर्ष की और प्रभव की ३० वर्ष की थी। अतः प्रभव स्वामी आचार्य जम्बू स्वामी के गुरुभ्राता हुए और बाद में जम्बू स्वामी के उत्तराधिकारी भी। जम्बू स्वामी के निर्वाण के पश्चात् वीर निर्वाण सं. ६४ में प्रभव स्वामी ने आचार्यपद का दायित्व सँभाला और वीर निर्वाण ७५ (विक्रम पूर्व ३९५) में १०५ वर्ष की सर्वायु पूर्ण कर उन्होंने अनशनपूर्वक स्वर्गारोहण किया। उन्हें द्वादशांगी का ज्ञान जम्बू स्वामी से उपलब्ध हुआ था या सुधर्मा स्वामी से? इसका कहीं पर भी स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। जो भी हो, आचार्य प्रभव श्रुतकेवली, विशिष्ट श्रुतधर, तेजस्वी, अनुशासन सक्षम एवं विशिष्ट प्रभुसत्ता से सम्पन्न आचार्य थे। विशेष ज्ञातव्य (१) आर्य सुधर्मा और आर्य जम्बू को अपने भावी उत्तराधिकारी आचार्य की चिन्ता नहीं करनी पड़ी, किन्तु आचार्य प्रभव की दृष्टि में उनके संघ में आचार्यपद ग्रहण करने की योग्यता वाला एक भी व्यक्ति नजर नहीं आया। अतः आचार्य प्रभव को शय्यंभव-जैसे महान् याज्ञिक ब्राह्मण को शिष्यरूप में प्राप्त करने के लिए काफी प्रयत्न करना पड़ा था। प्रभव के संघ-अनुशास्ताकाल में नन्दवंश का अभ्युदय हो चुका था। मगध देश में उदायी नरेश के राज्य का अन्त वीर निर्वाण सं. ६० (विक्रम पूर्व ४१०) में हो गया था। नन्दवंश के अभ्युदय के समय आचार्य जम्बू का आचार्यकाल था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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