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________________ ३१८ मूलसूत्र : एक परिशीलन (च) एक ही भव में अज्ञानता के कारण मानव के साथ कितनी अनर्थपूर्ण घटनाएँ घटित हो जाती हैं । इसे समझाने के लिए 'एक भव में १८ नाते' के नाम से प्रसिद्ध कुबेरदत्त - कुबेरदत्ता की कथा सुनाई । (छ) अर्थ के अनुचित उपयोग के दुष्परिणाम के सम्बन्ध में 'गोपयुवक' का दृष्टान्त सुनाया। १३२ (ज) लोकधर्म की असंगति के सम्बन्ध में 'महेश्वरदत्त' का सुप्रसिद्ध आख्यान सुनाया। (झ) दुःख में भी सुख की कल्पना करने के सम्बन्ध में 'वणिक्' का दृष्टान्त सुनाया ।' ३३ इस प्रकार संसार का सजीव चित्र आख्यानकों के माध्यम से प्रस्तुत 'करके जम्बूकुमार ने अपने माता-पिता, आठ पत्नियों, उनके माता-पिता एवं ५०० चोरों की अन्तश्चेतना को जागृत एवं प्रबुद्ध कर दिया। फलतः एक ही रात में ५२७ व्यक्तियों को प्रतिबुद्ध कर दीक्षित होने वाले जम्बूकुमार इतिहास के पृष्ठों पर सिर्फ एक ही हैं, अद्वितीय हैं। (२) भगवान महावीर का निर्वाण जम्बूकुमार की दीक्षा से कुछ ही मास पूर्व हुआ था। इस प्रकार के उल्लेख श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं के प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। (३) जम्बू स्वामी के निर्वाण (मोक्ष) के पश्चात् जम्बूद्वीपान्तर्गत भरत क्षेत्र में निम्नलिखित १० बातें विलुप्त हो गईं (१) मनःपर्यवज्ञान, (२) परम अवधिज्ञान, (३) पुलाकलब्धि, (४) आहारक - शरीर, (५) क्षपक श्रेणि, (६) उपशम श्रेणि, (७) जिनकल्प साधना, (८) त्रिचारित्र (परिहारविशुद्धि, सूक्ष्म- सम्पराय और यथाख्यातचारित्र), (९) केवलज्ञान, और (१०) मुक्तिगमन । १३४ १३५ (४) सुधर्मा और जम्बू का इससे पूर्व के ५ भवों का इतिवृत्त ग्रन्थों में मिलता है जिनमें ३ भव मनुष्य के और २ भव देव के हैं। मनुष्य के तीनों भवों में सुधर्मा के जीव ने जम्बू के जीव को प्रतिबोधित करके दीक्षित किया था। आर्य जम्बू के निर्वाण के साथ ही केवलीकाल की समाप्ति हो गई । तृतीय पट्टधर : आचार्य प्रभव आर्य जम्बू के पश्चात् केवलीकाल समाप्त हो जाने से श्रुतकेवलीकाल प्रारम्भ हुआ । श्रुतकेवलीकाल के प्रथम श्रुतधर आचार्य हुए- आर्य प्रभव । ये www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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