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________________ नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * ३१९ * जम्बू स्वामी के पट्ट पर,भगवान महावीर स्वामी के तीसरे पट्टधर हुए। श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में श्रुतकेवलीकाल के विषय में तथा श्रुतकेवली परम्परा के आचार्यों के विषय में मतैक्य नहीं है। श्वेताम्बर परम्परानुसार श्रुतकेवलीकाल वीर निर्वाण ६४ से वीर निर्वाण १७० तक कुल १०६ वर्ष की अवधि का माना गया है, जबकि दिगम्बर परम्परा में वीर निर्वाण ६२ से वीर निर्वाण १६२ तक १०० वर्ष का श्रुतकेवलीकाल माना गया है। श्वेताम्बर परम्परानुसार श्रुतकेवली के रूप में सर्वप्रथम आचार्य प्रभव का नाम लिया जाता है, जबकि दिगम्बर परम्परा में श्रुतकेवली रूप में प्रथम आचार्य विष्णुनन्दी-अपरनाम 'नन्दी' को माना गया है। ___ दोनों परम्पराओं से सम्मत श्रुतकेवली एवं उनका आचार्य काल इस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा दिगम्बर परम्परा (१) प्रभव स्वामी वीर निर्वाण ६४ से ७५ (१) विष्णुनंदि वीर निर्वाण ६२ से ७६ (२) शय्यम्भव स्वामी वीर निर्वाण ७५ से ९८ (२) नन्दीमित्र वीर निर्वाण ७६ से ९२ (३) यशोभद्र स्वामी वीर निर्वाण ९८ से १४८ (३) अपराजित वीर निर्वाण ९२ से ११४ (४) सम्भूतिविजय वीर निर्वाण १४८ से १५६ (४) गोवर्धन वीर निर्वाण ११४ से १३३ (५) भद्रबाहु स्वामी वीर निर्वाण १५६ से १७० (५) भद्रबाहु प्रथम वीर निर्वाण १३३ से १६२ विन्ध्य प्रदेश के जयपुर नगर में वीर निर्वाण पूर्व ३० (विक्रम पूर्व ५००, ईसा पूर्व ५५७) में कात्यायन गोत्रीय विन्ध्य राजा के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में क्षत्रिय राजकुमार प्रभव का जन्म हुआ। कनिष्ठ पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी बना दिये जाने से पित-स्नेह से वंचित एवं रुष्ट होकर प्रभव चोरपल्ली में पहुँच गया। अपनी निर्भीकता और बुद्धि-बल से जन-समूह को लूटता, धन हरण करता एवं शेर की तरह दहाड़ता हुआ प्रभव एक दिन ५०० चोरों का नेता बन गया। अवस्वापिनी और तालोद्घाटिनी विद्या के प्रभाव से उसका बल अत्यधिक बढ़ गया; इस कारण शस्त्र सज्जित सम्राट कोणिक का सैन्य-दल भी प्रभव के नाम से काँपता था। एक बार प्रभव के दल ने राजगृह के इभ्य श्रेष्ठी ऋषभदत्त के पुत्र जम्बू के विवाह की और उसमें प्राप्त ९९ करोड़ के प्रीतिदान की चर्चा सुनी तो एक ही दिन में धनाढ्य बनने की लालसा से वे अपने दल सहित श्रेष्ठी के विशाल गृह में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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