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* ३१२ * मूलसूत्र : एक परिशीलन
जैसे सूर्य के प्रकाश होते ही अन्धकार नष्ट हो जाता है, वैसे ही जिनशासन के प्रकाश से मिथ्यात्व, अज्ञान आदि रूप अन्धकार नष्ट हो जाता है। वैसे ही जिनशासन कुसमय (अपसिद्धान्तों अथवा कुप्रावचनिक मतों) के मद का मर्दक-नाशक है। यह शासन प्राणिमात्र का हितैषी होने से सदैव उपादेय है
और मुमुक्षुओं द्वारा ग्राह्य है। इसी कारण जिनेन्द्रों में प्रवरवीर-महावीर द्वारा प्रतिपादक जिनशासन जयवन्त है, सर्वोत्कृष्ट है, सर्वोपरि अतिशयवान है। इसीलिए कहा गया है-“जैनं जयतु शासनम्।" अर्थात् राग-द्वेष विजेता जिनेन्द्रों-वीतरागों द्वारा प्ररूपित जिनशासन विजयी हो। युगप्रधान स्थविरावली-वन्दन ___ वीर-शासन की महतोमहीयान् गुण-गरिमा के पश्चात् सूत्रकार ने अन्तिम मंगलाचरण के रूप में आचार्य सुधर्मा स्वामी से लेकर आचार्य दूष्यगणी तक के ३१ प्रभावक तथा युगप्रधान स्थविर-पुंगवों का गुणोत्कीर्तन सहित स्मरण करते हुए वन्दन किया है।
आज सभी विद्वान् समवेत स्वर में यह स्वीकार करते हैं कि श्वेताम्बर परम्परा की दो स्थविरावलियाँ-कल्पसूत्र स्थविरावली और नन्दी स्थविरावली पूर्णतः प्रामाणिक, विश्वसनीय एवं अतिप्राचीन ऐतिहासिक स्थविरावलियाँ हैं। दोनों स्थविरावलियों की प्रामाणिकता का प्रमाण
सन् १८७१ में जनरल कनिंघम के तत्त्वावधान में मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई में, दूसरी बार सन् १८८८ से सन् १८९१ में डॉ. फ्युदर के तत्त्वावधान में तथा तीसरी बार पं. राधाकृष्ण के तत्त्वावधान में हुई खुदाई में जैन इतिहास की महत्त्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध हुई है। इन शिलालेखों में कल्पसूत्र की स्थविरावली के छह गणों में से तीन गणों, चार गणों के १२ कुलों, १० शाखाओं तथा नन्दीसूत्र के आदिमंगल के रूप में दी गई वाचकवंश (वाचनाचार्यों) की स्थविरावली के १५वें आचार्य आर्य समुद्र, १६वें आर्य मंगु, २१वें आर्य नन्दिल, २२वें आर्य नागहस्ती और २९वें वाचनाचार्य भूतदिन्न के नामों का उल्लेख है।
इन शिलालेखों में दस पूर्वधर काल से लेकर सामान्य पूर्वधर तक के कतिपय वाचनाचार्यों, गणों, कुलों आदि का उल्लेख है। इससे यह सिद्ध होता है कि ये दोनों स्थविरावलियाँ अतिप्राचीन ही नहीं, प्रामाणिक भी हैं।
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