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________________ नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन ३११ पूछना । 'उत्पाद' आदि प्रत्येक पद पर गणधर पृच्छा करते हैं और प्रभु से उत्तर सुनकर सूत्रों की रचना करते हैं । (८) प्रथम सात गणधरों की आगम वाचना पृथक्-पृथक् थी। आगे के गणधरों में गणधर अचलभ्राता और अकम्पित की वाचना तथा गणधर मैतार्य और प्रभास की वाचना समान थी । अन्तिम युग्म की वाचना समान होने के कारण ११ गणधरों के ९ गण बने । ११७ आगम-वाचना के आधार पर निर्मित इन गणों में प्रथम सात गणों का संचालन इन्द्रभूति आदि प्रथम सात गणधरों ने क्रमशः किया । अचलभ्राता और अकम्पित ने८वें गण का तथा मैतार्य और प्रभास ने ९ वें गण का संचालन किया था। समवायांगसूत्र में गणधरों का काफी उल्लेख है । ११८ गणधर तीर्थंकर प्रभु के गण के स्तम्भ होते हैं। वे तीर्थंकरों की अर्थरूप वाणी को सूत्ररूप में ग्रन्थित करने वाले कुशल शब्दशास्त्री होते हैं। कहा भी है"अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं ग्रंथति गणहरा निउणा ।” अतिशयवान वीर - शासन की स्तुति ग्यारह गणधरों का नामोत्कीर्त्तन करने के पश्चात् नन्दीसूत्रकार ने जिनप्रवचन तथा जिनशासन की स्तुति की है । 1 यह जिनशासन सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप निर्वाण (निर्वृत्ति) पथ का शासक है, दूसरे शब्दों में मोक्ष पद का प्रदर्शक प्रशिक्षक है । ११९ शासन शब्द का व्युत्पत्तिजन्य अर्थ है - " जिससे हित- शिक्षा दी जाती हो, वह शासन है। वीर-शासन निर्वृत्ति अर्थात् निर्वाण के पथ का शासन है-मोक्ष पद का प्रतिपादक - हितशिक्षक है । १२० इसी का दूसरा नाम जिन-प्रवचन अथवा निर्ग्रन्थ प्रवचन है, जिसके लिए आवश्यकसूत्र के अन्तर्गत 'श्रमणसूत्र' में कहा गया है-यही निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है, अनुत्तर, केवलिप्रज्ञप्त है, न्याययुक्त है, प्रतिपूर्ण है, संशुद्धिकारक है, मायादि त्रिशल्य को काटने वाला है, सिद्धिमार्ग, मुक्तिमार्ग, निर्याणमार्ग, निर्वाणमार्ग है। यह अवितथ है, असंदिग्ध है, सर्वदुःख-प्रहाणमार्ग है। इस प्रवचन में स्थित जीव सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त करते हैं, सर्वदुःखों का अन्त करते हैं । १२१ यह जिन प्रवचन जीव- अजीव आदि सर्व भावों (पदार्थों) का प्रकाशक है, क्योंकि निर्मल, स्वच्छ श्रुतज्ञान के प्रकाश से समस्त पदार्थ ( पदार्थों का स्वरूप) प्रकाशित हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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