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* ३१० * मूलसूत्र : एक परिशीलन
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(३) आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार गणधरों को कुबेर के द्वारा वस्त्र, पात्र,
उपकरण आदि प्राप्त हुए थे।११ इनकी दीक्षा के समय देवगणों ने पंच दिव्यों की वृष्टि करके अपनी
प्रसन्नता एवं धर्म की महिमा प्रगट की।११२ (५) प्रभु की एक ही देशना में ११ विद्वान् आचार्यों ने ४,४०० शिष्यों के
सहित धर्म के शाश्वत सत्य स्वरूप को हृदयंगम कर लिया और सभी प्रभु के समीप दीक्षित हो गए। संयम-साधना स्वीकार करने के बाद इनको गणधर-लब्धि प्राप्त हो गई। फलतः वे गणधर कहलाए। आवश्यकचूर्णि, त्रिशष्टिशलाका पुरुष चरित्र एवं महावीर चरित्र के अनुसार ११ ही गणधर प्रभु महावीर के समक्ष कुछ झुककर खड़े हो गए। कुछ क्षण के लिए देवों ने वाद्य-निनाद बंद किये। उस समय सर्वप्रथम इन्द्रभूति का लक्ष्य करके प्रभु ने कहा-“मैं तुम्हें तीर्थ की अनुज्ञा देता हूँ।" तत्पश्चात् सभी गणधरों के मस्तक पर क्रमशः चूर्ण डाला।१३ भगवान महावीर ने ११ ही गणधरों को सर्वप्रथम 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यमयी त्रिपदी' का ज्ञान दिया।११४ उसी को सूत्ररूप में प्राप्त कर द्वादशांगी की रचना की। बारहवें अंग 'दृष्टिवाद' में चौदह पूर्व समाविष्ट थे। उनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं१. उत्पाद पूर्व
२. अग्रायणीय पूर्व ३. वीर्य-प्रवाद पूर्व ४. अस्ति-नास्ति-प्रवाद पूर्व ५. ज्ञान-प्रवाद पूर्व ६. सत्य-प्रवाद पूर्व ७. आत्म-प्रवाद पूर्व ८. कर्म-प्रवाद पूर्व ९. प्रत्याख्यान पूर्व १०. विद्यानुवाद पूर्व ११. कल्याण-प्रवाद पूर्व १२. प्राणादाय पूर्व १३. क्रियाविशाल पूर्व १४. लोकबिन्दुसार पूर्व
उक्त चौदह पूर्वो की रचना आचारांगादि द्वादशांगी के पूर्व की गई थी। इस कारण इन्हें 'पूर्व' नाम दिया गया।११५ चौदह पूर्व की रचना के पश्चात् अंगशास्त्रों की रचना की। इन चौदह पूर्वो की रचना तीन निषद्याओं में की जाती है।११६ 'निषद्या' का अर्थ है-वन्दना करके
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