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________________ नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन ३०३ रहा था। समग्र ज्ञानसिन्धु पर वे अपना एकाधिपत्य मानने लगे थे। समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, न्यायशास्त्र, शब्दशास्त्र (व्याकरण), छन्द, धर्म, विज्ञान आदि किसी भी विषय में उनसे शास्त्रार्थ में जीतने या लोहा लेने वाला कोई भी व्यक्ति उनकी दृष्टि में नहीं था । उसी नगर के बाहर 'महासेन' उद्यान में भगवान महावीर का पदार्पण हुआ । देवरचित समवसरण (धर्मपरिषद्) की ओर उमड़ती बहुसंख्यक जनता को देखकर सर्वप्रथम इन्द्रभूति बारह विशिष्ट चिह्न धारण कर अपने ५०० शिष्यों के साथ अहंकार और क्रोधावेश में आकर प्रतिद्वन्द्वी के रूप में भगवान के समवसरण में पहुँचे। भगवान महावीर ने उनके अन्तर्मानस में उठते हुए संदेह की ओर संकेत करते हुए कहा- "हे इन्द्रभूति गौतम ! तुम्हारे मन में आत्मा के अस्तित्त्व के सम्बन्ध में सन्देह है।” फिर भगवान ने अनेक तर्कों, युक्तियों और प्रमाणों द्वारा इन्द्रभूति के आत्मा के अस्तित्त्व विषयक सन्देह को दूर किया । भगवान महावीर से अपनी गुप्त शंकाओं का रहस्योद्घाटन एवं सन्तोषजनक समाधान पाकर इन्द्रभूति का अभिमान विगलित हो गया। वे भगवान के चरणों में फलों से लदी हुई शाखा की भाँति अपने सभी शिष्यों सहित झुक गए; सत्य को तत्काल स्वीकार करके वे प्रभु महावीर के चरणों में सशिष्य सर्वतोभावेन समर्पित होकर श्रमणधर्म में दीक्षित हो गए। भगवान महावीर द्वारा यह प्रथम दीक्षा संस्कार वीर निर्वाण पूर्व ३० ( तदनुसार वि. पू. ५००) वैशाख शुक्ला ११ को सम्पन्न हुआ। चतुर्विध संघ स्थापना का यह प्रथम चरण था । दिगम्बर मान्यता के अनुसार भगवान महावीर का गणधरों के साथ समागम कैवल्य के ६६ दिन पश्चात् राजगृह में हुआ था, ऐसा उल्लेख है। तीर्थ - प्रवर्त्तन की तिथि भी श्रावण कृष्णा प्रतिपदा मानी गई है | ८८ इन्द्रभूति गौतम ने ५० वर्ष की आयु में दीक्षा ग्रहण की । ३० वर्ष तक वे छद्मस्थ रहे। भगवान महावीर का निर्वाण विक्रम पूर्व ४७० में हुआ। उस समय गणधर इन्द्रभूति अन्यत्र प्रबोध देने गये थे । निर्वाण की सूचना पाते ही वे मोह विह्वल हो गए। उनका हृदय अनुताप से भर गया । शनैः-शनैः दृष्टि अन्तर्मुखी हुई | जागृति के उन क्षणों में मोह की दुर्भेद्य दीवार टूटी और केवलज्ञान, केवलदर्शन की लौ प्रदीप्त हो गई । तदनन्तर १२ वर्ष तक वे जीवन्मुक्त केवलीपर्याय में विचरे । अन्त में गुणशील चैत्य में मासिक अनशन करके वीर निर्वाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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