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________________ नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * ३०१ * तीर्थंकर-अजित, सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, सुविधि, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्थु, अर, मल्ली, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्व और महावीर (वर्धमान) हुए हैं। प्रस्तुत चतुर्विंशति-नाम-उत्कीर्तन में पद्मप्रभ जी का अपर नाम ‘सुप्रभ', चन्द्रप्रभ का शशी, सुविधिनाथ जी का पुष्पदन्त एवं भगवान महावीर का 'वर्द्धमान' नाम से उल्लेख करके स्तुतिकार ने उन तीर्थंकर भगवन्तों को भावपूर्वक वन्दन किया है। गणधरावली गुण-स्मरण चतुर्विंशति तीर्थंकर-स्तुति के पश्चात् सूत्रकार ने दो गाथाओं में ११ गणधरों-इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, श्रीव्यक्त, श्रीसुधर्मा, मण्डितपुत्र, मौर्यपुत्र, अकम्पित, अचलभ्राता, मैतार्य और श्रीप्रभास-का भावपूर्वक (गुण-) स्मरण किया है। जैन परम्परा और इतिहास में 'गणधर' शब्द उतना ही प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण है, जितना तीर्थंकर पद। तीर्थंकर तीर्थ अर्थात् साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकारूप चतुर्विध धर्मतीर्थ (श्रमणसंघ) की स्थापना करते हैं तथा श्रुतरूप आगम के पुरस्कर्ता-अर्थरूप से आगम के प्रतिपादक होते हैं। ‘गणधर' उस चतुर्विध धर्मसंघ की व्यवस्था, मर्यादा, समाचारी (आचार-संहिता) के नियोजक, व्यवस्थापक और तीर्थंकरों की अर्थरूप से उक्त वाणी को सूत्ररूप में ग्रथित (रचित एवं संकलित) करते हैं। आचार्य मल्लधारी हेमचन्द्र के अनुसार-“अनुत्तर ज्ञान-दर्शनादि गुणों के (या गुणों से युक्त) गण को धारण करने वाले मुनिवर गणधर कहलाते हैं।" गणधर भव्य, सम्यक् दृष्टि एवं चरमशरीरी जीव होते हैं। समस्त तीर्थंकरों के गणधरों की संख्या एक-सी नहीं, पृथक्-पृथक् होती है। जैसे-भगवान महावीर के ९ गण और ११ गणधर थे। किन्तु समवायांगसूत्र में ११ गण और ११ गणधरों का उल्लेख है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि एक ही प्रकार की वाचना लेने वाले साधु-समुदाय ९ भागों में विभक्त होंगे और प्रत्येक गणधर के अधीन पृथकपृथक् साधु-समुदायों की अपेक्षा से ११ गणधरों के ११ गण गिनाये होंगे। अतः भगवान महावीर के संघ के व्यवस्थापक, समाचारी नियोजक एवं सूत्ररचियता८२ ११ गणधर थे, जिनका गणधरावलि में स्मरण किया गया है; उनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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