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________________ * ३०० * मूलसूत्र : एक परिशीलन दर्शन, चारित्र, तपरूप मोक्षमार्ग की अथवा रत्नत्रयरूप धर्ममार्ग की प्ररूपणा करते हैं। पुराने कर्मों का क्षय और नये आते हुए कर्मों का निरोध करने का निर्जरा एवं संवर का उपाय और विधि बताते हैं। संसार में परिभ्रमण करते हुए जिज्ञासु, आत्मार्थी भव्य जीवों को कर्म एवं जन्म-मरणादि रूप संसार के दुःखों से छूटने के लिए मार्गदर्शन करते हैं। वे तीनों लोकों के पूज्य, विश्ववन्द्य एवं जगद्गुरु होते हैं। उनके कोई गुरु नहीं होता। वे अपनी साधना में किसी की सहायता की अपेक्षा न रखते हुए स्वयं के बल पर साध्य को प्राप्त करते हैं; वे स्वयंबुद्ध, स्वयं स्व-मार्गदर्शक होते हैं। गृहस्थ पर्याय में ही वे मति, श्रुत एवं परम विपुल अप्रतिपाती अवधिज्ञान (ज्ञानत्रय) के धारक होते हैं। दीक्षा अंगीकार करते ही वे चौथे विपूलपति मनःपर्यवज्ञान से सम्पन्न हो जाते हैं। छद्मस्थकाल में वे मौन या अत्यल्पभाषी रहते हैं और प्रायः खड़े रहकर कायोत्सर्ग आदि विविध तपःसाधनाएँ करते हैं। चार घातिकर्मों (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय) का सर्वथा क्षय करके वे केवलज्ञान, केवलदर्शनरूप अनन्तलक्ष्मी के स्वामी बनते हैं। इसके साथ ही वे ज्ञानातिशय (केवलज्ञान-सर्वज्ञता), अपायापगमातिशय (चौंतीस अतिशय), वचनातिशय (वाणी के पैंतीस अतिशय) तथा पूजातिशय (अष्टमहाप्रातिहार्य तथा देव, दनुज, मनुज, तिर्यंचों द्वारा पूज्यवन्द्य) से युक्त हो जाते हैं। केवलज्ञानी होने के बाद उनकी प्रथम धर्मदेशना (धर्मोपदेश) से ही हजारों नर-नारी प्रतिबुद्ध होकर श्रमणधर्म या श्रावकधर्म (अनगारधर्म या आगारधर्म) अंगीकार कर लेते हैं। इस प्रकार धर्ममार्ग (मोक्षमार्ग) पर चलने वाले नर-नारियों के समूह को संघबद्ध करके वे साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकारूप चतुर्विध धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं। इसी कारण उन्हें तीर्थंकर कहते हैं। दूसरे शब्दों में अरिहन्त, जिन, जिनेन्द्र, अर्हन्त आदि भी कहते हैं।८१ प्रत्येक उत्सर्पिणी (उत्थान) काल और अवसर्पिणी (ह्रास) काल में चौबीस-चौबीस तीर्थंकर होते हैं। यह सृष्टि का प्राकृतिक सार्वभौम नियम है। भरत क्षेत्र और ऐरावर्त क्षेत्र की अपेक्षा से यह कथन है। महाविदेह क्षेत्र में तो जघन्य २० तीर्थंकर एवं उत्कृष्टतः १६० या १७० तीर्थंकर एक साथ पृथक्पृथक् 'विजय' में हो सकते हैं। भरत और ऐरावर्त क्षेत्र के तृतीय आरे के अन्त से लेकर सम्पूर्ण चौथे आरे तक एक के बाद क्रमशः २४ तीर्थंकर होते हैं। भरत क्षेत्र में वर्तमान अवसर्पिणी काल के तृतीय आरे के अन्त में प्रथम तीर्थंकर (आदिनाथ) ऋषभदेव हुए। तत्पश्चात् चतुर्थ आरे में शेष २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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