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नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * २९९ . ____ 'सर्वार्थसिद्धि' और 'तत्त्वार्थ राजवार्तिक' में भी रत्नत्रय से युक्त श्रमणों के समुदाय को संघ कहा है। ‘प्रवचनसार' तात्पर्यवृत्ति में “मुनि, आर्यिका तथा श्रावक और श्राविका, इन चारों को श्रमण संघ के चार अंग बताये हैं। यह चातुर्वर्ण्य संघ चारों गतियों में परिभ्रमण का नाशक (मिटाने वाला) है। भयभीत जनों को अभय देने वाला है। वह (धर्मसंघ) निश्छल व्यवहार के कारण परस्पर विश्वासभूत है; समता के कारण शीतगृह-तुल्य है; अविषमदर्शी होने के कारण माता-पिता-तुल्य है तथा समस्त प्राणियों के लिए शरणभूत है। अतः जैसे नवप्रसूता गाय अपने बछड़े पर वात्सल्यभाव रखती है, उसी प्रकार (धर्म) संघ के प्रति (सबको) वात्सल्यभाव रखना चाहिए।"७७ ___ 'व्यवहार भाष्य' के अनुसार-“वस्तुतः आचार, विचार और व्यवहार की निर्मलता संघ में रहकर ही रह सकती है। अतः धर्म का निराबाध-निर्विघ्न पालन करने एवं आत्म-कल्याण करने के लिए संघ में रहना अनिवार्य है।'७८ 'बृहत्कल्प भाष्य' में संघस्थित (संघबद्ध) श्रमण को ज्ञान का अधिकारी बताया गया है। वही (संघस्थित ही) दर्शन और चारित्र में विशेष रूप से स्थिर होता है। सांसारिकता के मध्य एकलविहारयुक्त जीवन में विशुद्धतापूर्वक धर्म का पालन होना अत्यन्त कठिन है।'७९
श्रीसंघ के प्रति श्रद्धा-भक्ति एवं विनय करने से भगवदाज्ञा का पालन होता है। श्रीसंघ की आशातना भगवान की आशातना है और श्रीसंघ की सेवा-भक्ति करना भगवान की सेवा-भक्ति करना है। यही कारण है कि नन्दीसूत्र में संघ की, स्तुति करते हुए 'भगवओ संघ-समुद्दस्स सहस्स८० कहकर संघ को 'भगवान' तक कह दिया है। चतुर्विंशति जिन (तीर्थंकर)-स्तुति ___ पन्द्रह गाथाओं द्वारा संघ (चातुर्वर्ण्य श्रमणसंघ) की स्तुति एवं वन्दना करने के पश्चात् आचार्यश्री ने दो गाथाओं द्वारा २४ तीर्थंकरों का नामोत्कीर्तन किया है।
तीर्थंकर पद विश्व में सर्वोत्कृष्ट पद माना गया है। तीर्थंकर-देव राग-द्वेष विजेता वीतराग एवं धर्मतीर्थ के महान् प्रवर्तक होते हैं। वे ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तपरूप भावतीर्थ की तथा साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकारूपी रत्नत्रयरूप धर्ममार्ग पर चलने वाले चतुर्विध धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि वे किसी पंथ या सम्प्रदाय की बुनियाद डालते हैं, वरन् वे ज्ञान,
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