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* २९८ * मूलसूत्र : एक परिशीलन
में, अनन्तानन्त गुणों के आगर संघ को श्रद्धा-भक्तिपूर्वक नतमस्तक होकर वन्दन किया है। ____ संघ को नगर से उपमित करके शास्त्रकार कहते हैं- "जिस प्रकार परकोटे से सुरक्षित नगर अपने नगर-निवासियों को सुरक्षा प्रदान करता है; उसी प्रकार संघरूपी नगर अपने धर्म-साधनापरायण साधक वर्ग की ज्ञानादि पंचाचारपालन में स्खलनाओं से बचाता है, दूर रखता है।"
जिस प्रकार चक्र शत्रुओं का उच्छेद करता है, उसी प्रकार संघ चक्र भी संयम-साधना में बाधक राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अभिमान, माया आदि भावशत्रुओं का उच्छेद कर अपने अलौकिक गुणों से साधक वर्ग को सम्पन्न करता है।
जिसकी अठारह हजार शीलांगरूप पताकाएँ फहरा रही हैं, जिसमें नियम, संयम और तप के अश्व जुते हुए हैं, जिसका पंचांगयुक्त स्वाध्यायरूपी सुमधुर नन्दी (मंगल) घोष है, ऐसा भगवान का संघरूप रथ कल्याणकारी हो। __इसी प्रकार यह धर्मसंघ पद्म के समान विषय-वासनाओं से अलिप्त रहता है। वह धर्मसंघ के समस्त साधु-साध्वियों तथा श्रावक-श्राविकाओं को रागादि विकारों एवं दुर्गुणों से अलिप्त रखता है। संघ समस्त साधु वर्ग-श्रावक वर्ग को चन्द्रमा के समान शान्ति और शीतलता प्रदान करता है। तथैव संघसूर्य के समान जगत् में सम्यक् ज्ञान का तेजोमय प्रकाश प्रदान करने वाले संघसूर्य का कल्याण हो।
इसी प्रकार श्रीसंघ समुद्र के समान गम्भीर संयम की मर्यादा में रहने वाला गुणरूपी रत्नों से परिपूर्ण एवं मोक्ष की ओर अग्रसर रहने वाले संघसमुद्र का कल्याण हो। सुमेरुपर्वत के तुल्य सद्धर्ममंडित, सम्यक् दर्शन की पवित्र वज्रपीठिका से युक्त एवं विशुद्ध सम्यक् चारित्र की सुरभिगन्ध से आपूर्ण है। ऐसे अनन्त-अनन्त गुणों की खान संघ को मैं वन्दन करता हूँ।७५ विभिन्न जैन ग्रन्थों में संघ का महत्त्व
दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओं के आगमों और ग्रन्थों में संघ को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। दिगम्बर परम्परा के मान्य ग्रन्थ 'भगवती आराधना' में कहा गया है-“संघ गुणों का संघात (समूह) है और कर्मों का विमोचक है। दर्शन, ज्ञान और चारित्र; इन तीनों के संघात (सम्मिलित अवस्था) को जो प्राप्त है, वह संघ है।'७६
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