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________________ नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन २९७ चतुर्विंशति जिनचरित, वीरोदय काव्य, उत्तरपुराण, वर्धमानचरितम् आदि अनेक ग्रन्थ भगवान महावीर की आदर्श जीवन-गाथा से परिपूर्ण हैं । इनके अतिरिक्त राजस्थानी, गुजराती, हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी, बंगला आदि देशी-विदेशी सभी भाषाओं में प्राज्ञ विद्वानों ने भगवान महावीर का कथासूत्र धीरे-धीरे विकसित पल्लवित - पुष्पित होता हुआ आज पूर्ण यौवनावस्था में वटट-वृक्ष के समान उपलब्ध होता है। नन्दी सूत्र के रचयिता आचार्य देववाचक जी ने भी भगवान महावीर के प्रमुख गुणों को गुम्फित करते हुए अतीव ललित पदों में स्तुति की है, जो सूत्र के प्रारम्भ में मंगलाचरण के रूप में अंकित है । ७४ चतुर्विध संघ-स्तुति भगवान महावीर की स्तुति के पश्चात् आचार्यश्री ने चातुर्वर्ण्य (चतुर्विध) श्रमण संघ की स्तुति अत्यन्त भावपूर्ण हृदयस्पर्शी गाथाओं द्वारा की है । चतुर्विध संघ में साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका; ये चारों हैं। इसे भगवान महावीर ने इसलिए स्थापित किया है, ताकि चारों घटक मिलकर, परस्पर सहयोग से मोक्ष की - सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष की साधना निःशंक, निःशल्य और निराबाध रूप से कर सकें। संघ से अलग-थलग रहकर साधु वर्ग या श्रावक वर्ग का कोई भी व्यक्ति इस युग में अपनी साधना में सावधानी, जागृति, सतर्कता, विवेक, यतनापूर्वक प्रवृत्ति, क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि धर्मों का अभ्यास सुचारू रूप से नहीं कर सकता। अगर कोई साधक ज्ञानादि पंचाचार से भ्रष्ट हो रहा हो, ज्ञानादि चतुष्टय में विराधक बन रहा हो, तब संघ व श्रुत होने पर कौन उसे सावधान करेगा, कौन उसे भटकते हुए को धर्म में स्थिर करेगा । यही कारण है धर्माचरण करने वाला साधक वर्ग के लिए संघ का आश्रय अनिवार्य बताया है। अतएव धर्मसंघ का महान् उपकार है। गण, कुल एवं संघ की वैयावृत्य करने से, साधर्मिक तथा रोगी, ग्लान, तपस्वी नवदीक्षित आदि धर्मसंघ के सदस्यों की निःस्वार्थ भाव से श्रद्धा-भक्तिपूर्वक वैयावृत्य करने से महानिर्जरा तथा महापर्यवसान (सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष) रूप फल प्राप्त होता है । इस दृष्टि से संघ के प्रति उपकृत भाव से प्रेरित होकर आचार्य देववाचक जी ने संघ की स्तुति विविध उपमाओं से विभूषित करते हुए की है। शास्त्रकार ने संघ (धर्मसंघ) को क्रमशः नगर, चक्र, रथ, पद्म, चन्द्र, सूर्य, समुद्र एवं महामंदर गिरिराज की तथा प्रकारान्तर संघमेरु की भी भावनापूर्वक स्तुति की है । अन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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