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नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * २९५ *
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पाते, किन्तु सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष प्राप्त करने तथा आत्मा पर आये हुए कषायों तथा राग, द्वेष, मोह आदि विकारों को नष्ट करने हेतु स्वयं सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप की साधना में पुरुषार्थ करके ही उपर्युक्त विशेषणों के योग्य, विश्ववन्द्य वीतराग बने हैं। आगमों में सबसे प्राचीन आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध है। उसके ९वें अध्ययन उपधानश्रुत में भगवान महावीर की सम्यक् दर्शनादि चतुष्टय की साधना-आराधना में अप्रमत्त होकर (श्रम) पुरुषार्थ करने श्रमण-जीवन का हृदयस्पर्शी आदर्श प्रस्तुत किया गया है। इस अध्ययन में भगवान महावीर की शरीर और शरीर से सम्बन्धित पर-भावों और विभावों से दूर रहकर, देहाध्यास से ऊपर उठकर कठोर साधना और तितिक्षा का रोमांचकारी वर्णन है।७१ । प्रस्तुत अध्ययन के चार उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में भगवान महावीर की श्रमणोचित कठोर चर्या का, द्वितीय उद्देशक में शय्या वसति का, तृतीय उद्देशक में परीषहों और उपसर्गों के समय भगवान की तितिक्षा और सहिष्णुता का तथा चतुर्थ उद्देशक में आतंक, रोग आदि के दौरान भावचिकित्सा की सांगोपांग साधना का वर्णन है। इसके अतिरिक्त उनके जन्म, जन्म-स्थान, बाल्यकाल, युवाकाल, परिवार आदि पूर्व जीवन का किंचिन्मात्र भी उल्लेख नहीं है। यह श्रुतस्कन्ध गणधररचित है।
आचारांग का द्वितीय श्रुतस्कन्ध चतुर्दश पूर्वधर स्थविर द्वारा रचित है। इसमें तीसरे अध्ययन 'भावना' में भगवान महावीर के च्यवन, जन्म, विवाह, दीक्षा-ग्रहण एवं साधनाकाल के दौरान आई हुई विघ्न-बाधाओं का एवं तत्पश्चात् तीर्थंकर बनने का सामान्य परिचय दिया गया है।७२
दशाश्रुतस्कन्ध के आठवें अध्ययन में श्रमण भगवान महावीर के जीवन-वृत्त का विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है। वस्तुतः आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में भगवान महावीर के जीवन से सम्बन्धित जो रेखाएँ खींची गई थीं, उनमें रंग भरने का कार्य उक्त सूत्र में किया गया है।
साथ ही अंगसूत्रों में सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति), ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिक एवं विपाकसूत्र में भगवान महावीर के सिद्धान्तों, उनके अहिंसा, अनेकान्त एवं अपरिग्रह की विचारधारा का यत्र-तत्र चर्चा, गौतम-महावीर संवाद एवं भगवान महावीर के तथा अन्य तीर्थंकरों के शासन में दीक्षित साधु-साध्वियों
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