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________________ * २९४ * मूलसूत्र : एक परिशीलन की २ श्लोकों में, ग्यारह गणधरों की २ श्लोकों में तथा वीरशासन की १ श्लोक में स्तुति की गई है। तदनन्तर २६ श्लोकों में सुधर्मा स्वामी से लेकर युगप्रधान दूष्यगणी तक को तथा उनके अतिरिक्त अन्यान्य अनुयोगधर, श्रुतधर एवं युगद्रष्टा स्थविर मुनियों को उनकी विशेषताएँ बताते हुए प्रणाम किया गया है। सर्वप्रथम अर्हत्-स्तुति और महावीर-स्तुति क्यों ? मंगलाचरण में शासनेश अरिहन्त भगवान तथा केवलज्ञानी परमात्मा की स्तुति आचार्य देववाचक जी ने की है। इसके पीछे उनका आशय यह प्रतीत होता है कि जिस प्रकार सम्यक् ज्ञान की पूर्ण ज्योति पाकर वे जगत् के सर्व जीवों के उत्पत्ति स्थान (योनि) विज्ञाता, जगत् के गुरु (मार्गदर्शक), जगत् के लिए आनन्ददायक, जगत् के नाथ, जगद्-बन्धु विश्ववत्सल जगत् के पितामह बने; इसी प्रकार हम भी सम्यक् ज्ञान के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचकर वीतरागता को उपलब्ध करें और विश्ववत्सल बनें। तत्पश्चात् समग्र श्रुतज्ञान के मूल स्रोत, वर्तमान अवसर्पिणी काल के अन्तिम चौबीसवें तीर्थंकर, तीन लोक के गुरु (विश्वगुरु), महान् आत्मा भगवान महावीर की जय हो, ऐसी मंगल भावनात्मक चार विशेषणों से युक्त स्तुति भी उस महाप्रभु के प्रति कृतज्ञता प्रगट करने के लिए आवश्यक थी। तीसरी गाथा में भी समग्र विश्व में सम्यक् ज्ञान का उद्योत करने वाले, राग-द्वेषरूप रिपुओं के विजेता, देवों और दानवों द्वारा वन्दनीय तथा कर्मरूपी रज को झाड़ देने वाले (कर्मों से मुक्त) प्रभु महावीर भद्ररूप कल्याणरूप हों। इस प्रकार चार विशेषण भगवान के ज्ञानातिशय, अपायापगमातिशय तथा पूजातिशय और पूर्व गाथा में उक्त विशेषण वागतिराय; यों चार अतिशय कल्याणप्रद हों। इस प्रकार की स्तुति करके शास्त्रकार ने ध्वनित कर दिया है कि यदि ये चारों ही विशेषण जीवन में घटित हो जाएँ तो भक्तजनों के द्वारा की गई यथार्थ स्तुति कल्याणप्रद हो सकती है।७० आगमों में भगवान महावीर पूर्वोक्त तीन गाथाओं में जो विशेषण वीतराग शासनेश अरिहन्त तथा भगवान महावीर प्रभु के लिए प्रयुक्त किये गए हैं, उन विशेषताओं को भगवान महावीर तथा अन्य वीतराग अरिहन्त केवल जन्म लेने मात्र से या किसी भगवान, परमात्मा या वीतराग की कृपा से वरदान के रूप में प्राप्त नहीं कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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