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________________ नन्दी सूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन २९३ —————— की स्तुति के रूप में मंगलाचरण करने से उनके उन गुणों की उपलब्धि अपनी आत्मा में करने की प्रेरणा मिलती है । अपना उपयोग विशुद्ध व स्वच्छ हो जाता है, आत्मा में परमात्म भाव झलकने लगता है। (५) मंगलाचरण से अशुभ कर्मों की निर्जरा होती है । (६) मंगलाचरण करने से प्रमाणों और नयों से सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् दर्शन की उपलब्धि होती है। सम्यक् ज्ञान, दर्शन, प्राप्ति का विशिष्ट निमित्त अधिगम है। (७) मंगलाचरण से इष्टदेव के प्रति तन्मय होकर उनकी अनन्य भक्ति में लीन होकर व्यक्ति सर्वस्व समर्पण कर देता है। (८) मंगलाचरण से दूसरे मुमुक्षु या जिज्ञासु अन्यार्थी भी प्रभावित होते हैं, व्यक्त एवं अव्यक्त रूप से परम्पराएँ उक्त मार्ग की प्रशस्त प्रभावना भी होती है । ६९ नन्दीसूत्र में मंगलाचरण से देववाचक जी को लाभ अतः नन्दीसूत्र के आदि में विभिन्न स्तुतियों के रूप में जो मंगलाचरण किया गया है, उससे देववाचक जी को तो महान् लाभ हुआ ही है, किन्तु इसके पठन - श्रवण से दूसरों को भी लाभ होता है, क्योंकि ऐसा लोकोत्तर मंगलाचरण भी स्व-पर- प्रकाशक होता है । अरिहन्तों और सिद्धों के असाधारण गुणों की स्तुति से उनके उपकारों के प्रति कृतज्ञता प्रगट करने के अतिरिक्त उनके गुणों को अपने जीवन में उपलब्ध करने की भी प्रेरणा मिलती है। साथ ही देववाचकगणी ने श्रुतधर आचार्यों, स्थविरों तथा जिनशासन एवं श्रीसंघ के प्रति आत्मार्थी जनमानस में श्रद्धा-भक्ति बढ़ाई है। भगवान द्वारा स्थापित चतुर्विध संघ भी भगवद् रूप है, उसकी विनय-भक्ति करना भगवद्-भक्ति है । उसका अपमान, अवज्ञा या आशातना करना भगवान का अपमान, अवज्ञा या आशातना है। मंगलाचरण करने के बाद कार्य में सफलता मिलने पर अपने में अहंकार न आ जाए तथा भगवद्-भक्ति, संघ- भक्ति, स्थविर - भक्तिरूप मंगलाचरण को सफलता का श्रेय मिले, इसके लिए भी मंगलाचरण लाभदायक है । अतः निःस्वार्थभाव से, शुद्ध रूप में मंगलाचरण के द्वारा विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान, कषायादि व्युत्सर्ग इत्यादि आभ्यन्तर तप का भी लाभ अनायास ही प्राप्त हुआ है, देववाचक जी से, दूसरों को भी होता है। नन्दीसूत्र के विषयों का वर्गीकरण नन्दीसूत्र में सर्वप्रथम ५० श्लोकों में मंगलाचरण किया गया है जिसमें दो श्लोकों में क्रमशः सामान्य रूप को और श्रमण भगवान महावीर को नमस्कार किया गया है। उसके पश्चात् चतुर्विध संघ की १७ श्लोकों में, चौबीस तीर्थंकरों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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