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________________ * २९२ * मूलसूत्र : एक परिशीलन प्रत्येक शुभ कार्य में अनेक विघ्न-बाधाओं का आना स्वाभाविक है। इसी कारण अनुभवी रचनाकारों और आचार्यों ने अपनी रचना करने से पूर्व मंगलाचरण किया है, क्योंकि मंगल ही अमंगल को विनष्ट कर सकता है। मंगलाचरण से लौकिक और लोकोत्तर लाभ अतः मंगलाचरण लौकिक और पारलौकिक अथवा लोकोत्तर दृष्टि से भी लाभदायक है। मंगलाचरण से विघ्न-समूह स्वयं उपशान्त हो जाता है। विघ्नों के अभाव में सफलता निश्चित है। यदि प्रगतिबाधक विघ्न पहले से ही शान्त हैं तो मंगलाचरण या तो आध्यात्मिक दृष्टि से सकाम कर्मनिर्जरा का कारण बनता है या फिर पुण्यानुबन्धी पुण्य का कारण भी हो सकता है। "उत्तराध्ययनसूत्र' में भगवान महावीर ने बताया है कि “स्तव स्तुतिरूप मंगल से (मंगलाचरण से) जीव को ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप बोधि की प्राप्ति (लाभ) करता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप बोधि-लाभ-सम्पन्न जीव या तो अन्तःक्रिया (स्वयं को सर्वकर्मों के अन्तरूप मुक्ति) का उपार्जन करता है या फिर कल्पोपपन्न या नवग्रैवेयक और पाँच अनुत्तर विमान में उत्पन्न होता है।" तात्पर्य यह है कि अरिहन्त और सिद्ध भगवान की स्तुतिरूप मंगलाचरण पाठ करने से रत्नत्रय बोधि-लाभ-सम्पन्न जिस जीव के समस्त घातिकर्मों का क्षय हो गया हो, उसे मोक्ष प्राप्त होता है और जिसके कुछ कर्म बाकी रह गए हों वह आत्मा सर्वोत्तम कल्पोपपन्न एवं कल्पातीत देवलोकों में उत्पन्न होता है, वहाँ से च्यवकर उत्तम मानव भव प्राप्त करके अन्त में मोक्ष प्राप्त करता है।५८ मंगलाचरण से आठ प्रमुख लाभ ___ आचार्य श्री आत्माराम जी म. ने नन्दीसूत्र-प्रस्तावना में मंगलाचरण से आठ लाभ बताए हैं-(१) विघ्नोपशमन, (२) श्रद्धा, (३) आदर, (४) उपयोग, (५) निर्जरा, (६) अधिगम, (७) भक्ति, और (८) प्रभावना।। (१) जैसे सूर्य के प्रकाश से सारा अन्धकार नष्ट हो जाता है वैसे ही मंगलाचरण से तमाम विघ्नों का विलय हो जाता है, कण्टकाकीर्ण मार्ग निष्कंटक हो जाता है। सभी विघ्न उपशान्त हो जाते हैं। (२) मंगलाचरण करने से इष्टदेव के प्रति श्रद्धा दृढ़ होती है। श्रद्धा से ज्ञान प्राप्त होता है। श्रद्धा आत्मोन्नति का मूल मंत्र है। (३) मंगलाचरण करने से इष्टदेव और पंचपरमेष्ठी भगवन्तों तथा लक्ष्य के प्रति आदर-बहुमान बढ़ता है जिससे उनकी अविनय आशातना, अवज्ञा होने का प्रश्न ही नहीं उठता। (४) इष्टदेवों के विशिष्ट गुणों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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