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________________ नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * २९१ * उनकी पूर्ति निर्विघ्नतापूर्वक हो तथा विघ्नों का उपशमन हो, शास्त्र-रचना के . आदि, मध्य और अन्त में किसी प्रकार का विघ्न न हो, इस कारण भी पृथक्पृथक् उद्देश्य से मंगलाचरण किया जाता है। जैसे कि तपश्चर्या स्वयं मांगलिक है, फिर भी उसे ग्रहण करने से पूर्व गुरु वन्दन-नमस्कारपूर्वक उसके लिए आज्ञा, आशीर्वाद, स्वीकृति आदि तपश्चर्या की पूर्णाहुति में कारण होने से मंगलमय माने जाते हैं। उसी प्रकार आगम स्वयं मंगलरूप है तथा सम्यक् ज्ञान में प्रवृत्ति-प्रेरक होने से आनन्दप्रदायक भी है, तथापि आगम का अध्ययन, अध्यापन, रचना एवं संकलन-सम्पादन करने से अथवा आगमों की टीका, व्याख्या, नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, अनुवाद आदि करने से या नवीन साहित्य सृजन करने से पूर्व अध्येता, अध्यापनकर्ता, रचयिता, सम्पादक, संकलयिता आदि का परम कर्त्तव्य हो जाता है कि आगमों तथा जिनवाणी के प्रमुख स्रोत तीर्थंकर भगवन्तों तथा ज्ञान के सर्वोच्च शिखर शासनदेव महावीर प्रभु तथा जिनवाणी को सूत्रबद्ध करने वाले गणधरों, जिनवाणी तथा जिनेन्द्र द्वारा प्ररूपित ज्ञान की परम्परा को सुरक्षित एवं स्थिर रखने वाले रत्नत्रय के परम साधक तथा बहुश्रुत पूज्य स्थविरों एवं उपकारी महाश्रमणों को वन्दन-नमस्कार एवं उनका गुणगान-बहुमान करें, जोकि मंगलकारक हैं, विघ्न-समूह को शान्त करने वाले हैं।६६ मंगलाचरण क्यों आवश्यक है ? मंगलाचरण के विषय में जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण 'विशेषावश्यक भाष्य' में अपने विचार व्यक्त करते हैं-श्रेयस्कर (श्रेष्ठ) कार्य अनेक विघ्नों से व्याप्त होने से कार्य को सकुशल पूर्ण नहीं होने देते। अतएव मंगलोपचार करके ही उस कार्य को प्रारम्भ करना चाहिए। जिस प्रकार महानिधि का उत्खनन मंगलोपचार करके ही किया जाता है, उसी प्रकार महाविद्या भी मंगलोपचार करके ही प्रारम्भ की जाती है। क्योंकि महानिधि के समान महाविद्या भी अनेक विघ्नों से युक्त होती है। अतः मंगलाचरण करने से महाविद्या में आने वाले सभी विघ्न-समूह शान्त हो जाते हैं। अतः “शास्त्र (सृजन, अध्ययन-अध्यापन, लेखन या शुभ कार्य) के आदि में, मध्य में और अन्त में" मंगलाचरण करना चाहिए, ताकि विघ्न-समूह स्वयं उपशान्त हो जाए। शास्त्र के आदि में किया गया मंगल निर्विघ्नता से पारगमनार्थ सहयोगी होता है। उसकी स्थिरता के लिए मध्य मंगल सहयोग देता है और अन्तिम मंगल शिष्य-प्रशिष्यों में मंगलाचरण की परम्परा अविच्छिन्न (चालू) रखने के लिए किया जाता है।'६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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