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* २९० * मूलसूत्र : एक परिशीलन
.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.रचना की हो। यह भी सम्भव है कि संकलन के समय दृष्टिवाद का जो ढाँचा रह गया था, उसी को नन्दीसूत्र में ज्यों का त्यों पाठ के रूप में निबद्ध कर दिया हो। इस अनुमान पर से नन्दीसूत्र को ज्ञानप्रवाद पूर्व का एक अंश मान लिया जाए तो भी कोई अत्युक्ति नहीं है, क्योंकि इसका मूल स्रोत तो उक्त पूर्व ही है। ___ अथवा नन्दीसूत्र की रचना का यह आधार भी हो सकता है कि ज्ञानप्रवाद पूर्व का अध्ययन करने में उस युग में जो साधक असमर्थ थे, उन मंदमति साधकों को पंचविध ज्ञान के समस्त भेद-प्रभेदों और पहलुओं का ज्ञान एवं अध्ययन सुगमतापूर्वक कराया जा सके या हो सके, एतदर्थ ऐसे साधकों को लक्ष्य में रखकर देववाचक जी ने उक्त पूर्व से उद्धृत करके नन्दीसूत्र की रचना की हो।६४ ___ आचार्य श्री हस्तीमल जी म. ने स्थानांग, अनुयोगद्वार, प्रज्ञापना, भगवतीसूत्र एवं दशाश्रुतस्कन्ध आदि कितने ही आगमों (शास्त्रों) के स्थलों से नन्दीसूत्र के पाठों की समानता दिखाकर यह सिद्ध किया है कि नन्दीसूत्र श्री देववाचक क्षमाश्रमण द्वारा विविध आगमों से संकलित रचना है। अंगशास्त्रों के आधार पर से ही देववाचक जी ने उत्कालिक आदि आगमों के पाठ उद्धत किये हैं।६५ __वस्तुतः नन्दीसूत्र की रचना के पीछे पूर्वोक्त आधारों तथा उद्देश्यों में से कोई भी आधार या उद्देश्य रहा हो, तथापि यह सुनिश्चित है कि नन्दीसूत्र आगमों एवं पूर्व ज्ञान की आंशिक क्रमबद्ध शैली में निरूपित मंगलमयी रचना है। 'आगम' और 'नन्दी' मंगलरूप हैं, फिर मंगलाचरण क्यों ?
शास्त्र के प्रारम्भ मंगलाचरण की आवश्यकता के विषय में एक ज्वलन्त प्रश्न उपस्थित होता है कि 'आगम' और आगमोक्त जिनवाणी स्वयं मंगलरूप है, तथैव 'नन्दी' भी स्वयं मंगलरूप मानी जाती है। फिर नन्दीसूत्र के प्रारम्भ में मंगलाचरण के लिए शास्त्रकार ने अर्हत्-स्तुति, महावीर-स्तुति, संघ-स्तुति, तीर्थंकरावली, गणधरावली, जिनशासन-स्तुति और स्थविरावलि के माध्यम से गुणानुवाद और वन्दन के रूप में बहुत ही विस्तार से मंगलाचरण क्यों किया है ? इतने विस्तृत रूप में स्वतः मंगल का पुनः पुनः मंगलाचरण करने के पीछे शास्त्रकार का क्या हेतु रहा है? ।
यह सत्य है कि आगम और आगमोक्त जिनवाणी तथा नन्दी एवं नन्दीसूत्र प्ररूपित ज्ञान स्वयं मंगलरूप है, फिर भी सबके शुभ उद्देश्य भिन्न-भिन्न होते हैं।
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