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नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * २८९
अमोघ उपाय नन्दीसूत्र की रचना के माध्यम से हो सकता है, इसी आशय का उद्देश्य 'नन्दीसूत्र' की रचना के पीछे श्री देववाचक जी का रहा हो, ऐसा प्रतीत होता है।६२ यह भी एक उद्देश्य सम्भव है ___ हेय, ज्ञेय, उपादेय को, आत्मा और कर्म को, बन्ध और मोक्ष को तथा मोक्ष के उपायों को सद्बुद्धि की तुला पर तोलकर विश्लेषणात्मक दृष्टि से समझना सद्विवेक है, जो सम्यक् दर्शन का ही दूसरा रूप है। ऐसे सम्यक् दर्शन दीप को प्रज्वलित रखने के लिए आचार्य श्री देववाचक जी ने सम्यक् ज्ञान प्ररूपक नन्दीसूत्र के स्वाध्याय को सर्वश्रेष्ठ साधन माना। स्वाध्याय श्रुत धर्म का विशिष्ट अंग है, श्रुत धर्म हमारे चारित्र धर्म को जगाता है। चारित्र धर्म से आत्मा की विशुद्धि होती है। आत्म-विशुद्धि से केवलज्ञान की प्राप्ति, उससे आन्तरिक विमुक्ति और विमुक्ति से एकान्त आत्मिक पर सुख एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है, यह उद्देश्य भी नन्दीसूत्र की रचना के पीछे रहा हो ऐसा अनुमान है।६३ नन्दीसूत्र की रचना का आधार
श्रद्धेय देववाचक जी सम्यक् ज्ञान के बिन्दु से लेकर सिन्धु तक का तलस्पर्शी अध्ययन करके जगत के तथा अध्यात्म के उच्च, मध्यम, निम्न कोटि के जिज्ञासु साधकों के समक्ष, अरिहंतों द्वारा केवलज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित सम्यक् ज्ञान की धाराओं का एक जगह एक ही शास्त्र में संकलन करके रखना चाहते थे। उन्होंने आगमों की तत्कालीन श्रुत परम्परा से प्राप्त समुद्र में गोता लगाया और देखा कि ज्ञान के सम्बन्ध में यत्र-तत्र बिखरे-बिखरे किन्तु ठोस विचार तो उपलब्ध हैं, किन्तु एक ही जगह सारा ज्ञान-रत्नाकर एकत्रित नहीं है। अतः आज से लगभग १,५०० वर्ष पहले ऐसा कोई आगम उपलब्ध नहीं था, जिसमें ज्ञान का अथ से इति तक सविस्तृत वर्णन हो, ताकि अध्यात्म ज्ञान साधक एक ही शास्त्र में ज्ञान-सिन्धु को प्राप्त करके उसमें अवगाहना कर सके। बीज की तरह यत्र-तत्र बिखरे हुए ज्ञान का वर्णन तो उस यग में भी अनेक आगमों में उपलब्ध था। बहुत सम्भव है, यत्र-तत्र बीजरूप में बिखरे हुए ज्ञान-कणों को उन्होंने अपनी विशाल प्रज्ञा और हार्दिक श्रद्धा-निष्ठा से यथावस्थित क्रम से नन्दीसूत्र के रूप में क्रमबद्ध संकलित और सम्पादित किया हो अथवा देववाचक जी स्वयं पूर्वधर थे, अतः यह भी सम्भव है कि व्यवच्छिन्न हुए ज्ञानप्रवाद पूर्व के शेषावशेष का आधार लेकर नन्दीसूत्र का संकलन या
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