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________________ २८८मूलसूत्र : एक परिशीलन नदीसूत्र की रचना का उद्देश्य 1 श्रद्धेय देववाचकगणी की जिनवाणी पर अगाध श्रद्धा-निष्ठा एवं भक्ति थी । स्वयं उन्होंने आचारांगादि अंगशास्त्रों का तथा दो पूर्वी तक का अध्ययन किया था। वे स्वयं तीर्थंकर अर्हद् भगवान की वाणी को अविच्छिन्न रखने के लिए प्रयत्नशील थे। नन्दीसूत्र की रचना करने के पीछे उनके दो मुख्य उद्देश्य रहे हैं - ( 9 ) रत्नत्रय की आराधना, और (२) योगत्रय की आराधना । रत्नत्रय हैंसम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र । उन्होंने अरिहन्त देव, निर्ग्रन्थ गुरु और वीतराग प्ररूपित सन्दर्भ एवं तत्त्व पर दृढ़ श्रद्धा तथा आत्मा और आत्म-शुद्धि के साधनरूप संवर- निर्जरारूप धर्म पर श्रद्धा-निष्ठा रखकर दर्शनाराधना की, साथ ही सम्यक् दर्शन के कारण सम्यक् ज्ञान के स्रोत आगमों का निम्नपूर्वक अध्ययन किया । सम्यक् दर्शन के कारण उनका ज्ञान भी सम्यक् और निर्मल होता गया, तत्त्वज्ञान को समझाने की उनमें अपूर्व शक्ति थी । निर्मल सम्यक् ज्ञान होने से उनका चारित्र भी सम्यक् एवं निर्मल रहा । इस प्रकार रत्नत्रय की आराधना करने के साथ-साथ संघ-सेवा, श्रुताराधना, प्रवचन- रक्षा करने की अन्तःस्फुरणा जारी रही । नन्दीसूत्र की संकलना करने में एक उद्देश्य यही रहा कि ज्ञान की परम्परा अविच्छिन्न रहेगी तो चारित्र और तप की आराधना भी निर्मल और सम्यक् रूप से मेरे जैसे अन्य साधकों की भी होती रहेगी। साथ ही नन्दीसूत्र की रचना के पीछे दूसरा उद्देश्य योगलय की आराधना का था। योगत्रय हैं - ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग । भवसागर को पार करने के लिए सर्वोत्तम नौका श्रुत सेवा है। अतः आगमों पर जिनप्रणीतप्ररूपित तत्त्वों पर, जैन सिद्धान्तों एवं वीतरागता पर दृढ़ श्रद्धा रखना-रखाना, स्वयं भी भेदविज्ञाननिष्ठ होकर पर भावों एवं विभावों से ज्ञान - बल के आधार पर ऊपर उठकर ज्ञाता - द्रष्टा बने रहने का अभ्यास करना, आगमों की रक्षा करना, उनका पंचांगपूर्वक स्वाध्याय- अध्ययन करना - कराना ज्ञानयोग की आराधना है जिसे वे करते थे। साथ ही श्रुत सेवा द्वारा तथा संघ को धर्म की प्रेरणा, धर्मोपदेश एवं तत्त्वज्ञान की प्रेरणा द्वारा संघ-सेवा करना कर्मयोग की आराधना है जो उन्होंने की तथा देव, गुरु, धर्म और शास्त्र पर दृढ़ श्रद्धा-निष्ठा रखना तथा इन चारों के लिए तन, मन तथा सर्वस्व साधन समर्पित करना एवं संघ तथा प्रवचन की भक्ति करना भक्तियोग की आराधना है, यह भी उन्होंने सहर्ष की । वस्तुतः इन तीनों योगों की आराधना एवं स्व-पर-कल्याण का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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