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________________ नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन २८७ वल्लभी स्थविरावली में भूतदिन के ७९ वर्ष और कालक के ११ वर्ष बताये गए हैं तथा कालक के साथ ही वह स्थविरावली पूर्ण होती है । तब अन्त में वीर निर्वाण सं. ९८१ तक में कालक का काल पूर्ण होता है । ६१ देववाचक ने जो स्थविरावली नन्दीसूत में दी है, उसके अनुसार 'भूतदिन ' के बाद 'कालक' का नहीं, लौहित्य का उल्लेख है। वल्लभी स्थविरावली में उल्लिखित कालक के ११ वर्ष न गिनें तो भूतदिन्न का स्वर्गवास वीर निर्वाण सं. ९७० ( तदनुसार विक्रम सं. ५००) में हुआ। उसके पश्चात् नन्दीसूत्र के अनुसार लौहित्य हुए और बाद में हुए दूष्यगणी । दूष्यगणी के शिष्य देववाचक हुए। ऐसा भी सम्भव है कि भूतदिन्न का जीवितकाल ७९ वर्ष जितना लम्बा हो और उनकी उपस्थिति में ही उनके शिष्य लौहित्य और प्रशिष्य दूष्यगणी दोनों विद्यमान रहे हों। इससे हम देववाचक को वीर निर्वाण सं. ९७० (विक्रम सं. ५००) से भी पूर्व मान सकते हैं। ऐसा न हो तो भी भूतदिन्न के बाद ५० वर्ष में देववाचक हुए, ऐसा मानने में कोई आपत्ति नहीं आती। अर्थात् विक्रमाब्द ५०० से ५५० तक उनका समय माना जा सकता है । अतः देववाचक के समय की अन्तिम अवधि विक्रम सं. ५५० माननी चाहिए। उससे पूर्व भी हुई हो, ऐसी भी सम्भावना है। उनकी इस अन्तिम अवधि का समर्थन आचार्य जिनभद्र का 'विशेषावश्यक' भी करता है क्योंकि उसमें नन्दी का उल्लेख आया है। आचार्य जिनभद्र का समय ५४६ से ५५० के आसपास का है, इसलिए नन्दी की रचना उनके विशेषावश्यक से पूर्व की गई हो, यह बहुत सम्भव है। आचार्य देवर्द्धिगणी ने कल्पसूत्र का लेखन वीर निर्वाण सं. ९८० अथवा ९९३ (विक्रम सं. ५१० ५२३) में पूर्ण किया है। इसलिए नन्दी की रचना का समय उसके पूर्व ही होना चाहिए क्योंकि नन्दीसूत्र का उल्लेख अन्य आगमों में आता ही है । इसलिए यह निःसन्देह कहा जा सकता है कि नन्दीसूत की रचना विक्रम सं. ५२३ से पूर्व हो गई थी । आवश्यकनिर्युक्ति द्वितीय भद्रबाहु स्वामी की कृति है, जिनके समकालीन वराहमिहिर थे, जिन्होंने विक्रम सं. ५६२ में 'पंचसिद्धान्तिका' लिखी है। अतः आवश्यकनियुक्ति का समय भी विक्रम सं. ५६२ मानें तो भी नन्दीसूत्र की रचना इससे पूर्व हो चुकी होगी, ऐसा युक्तिसंगत मालूम होता है। अंगादि सूत्रों के वल्लभी लेखनकाल को ध्यान में लें तो पूर्वोक्त विक्रम सं. ५२३ से पूर्व नन्दीसूत्र की रचना मानने में कोई बाधा नहीं प्रतीत होती । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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