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________________ * २८६ * मूलसूत्र : एक परिशीलन आगम-रत्नाकर आचार्य श्री आत्माराम जी म. ने अपने द्वारा सम्पादित नन्दीसूत्र की प्रस्तावना (नन्दीसूत्र दिग्दर्शन) में देववाचक को ही देवर्द्धिगणी के रूप में स्वीकार किया है। उन्होंने लिखा है-“देववाचक जी सौराष्ट्र प्रदेश के एक क्षत्रियकुल मुकुट काश्यप गोत्रीय मुनिसत्तम हुए हैं जिन्होंने आचारांग आदि ११ अंगसूत्रों के अतिरिक्त दो पूर्वो का अध्ययन भी किया। अध्ययन में बृहस्पति-तुल्य होने से श्रीसंघ ने कृतज्ञता प्रदर्शित करते हुए उन्हें 'देववाचक' पद से विभूषित किया। माता-पिता ने इनका क्या नाम रखा था? यह अभी खोज का विषय है। नन्दीसूत्र की संकलना या रचना करने वाले देववाचक ही हुए हैं। वे ही आगे चलकर कालान्तर में दूष्यगणी के पट्टधर गणी हुए हैं। अर्थात् (वाचक) उपाध्याय से आचार्य (गणी) बने हैं। दैवी सम्पत्ति व आध्यात्मिक ऋद्धि से समृद्ध होने के कारण देवर्द्धिगणी के नाम से ख्यात हुए हैं। तत्कालीन श्रमणों की अपेक्षा क्षमाप्रधान श्रमण होने से देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के नाम से अधिक प्रसिद्ध हुए हैं। एक देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण इससे भी पहले हुए हैं, वे काश्यप गोत्रीय नहीं, बल्कि माठर गोत्रीय हुए हैं, ऐसा कल्पसूत्र की स्थविरावली में स्पष्ट उल्लेख है।"५८ किसी अज्ञात मुनिवर ने कल्पसूत्र की स्थविरावली में यह गाथा दी है “सुत्तत्थ-रयण-भरिए, खम-दम-मद्दव-गुणेहिं संपन्ने। देवढि खमासमणे, कासवगुत्ते पणिवयामि॥" अर्थात् जो सूत्र और अर्थ (अथवा सूत्रार्थ)-रूप रनों से परिपूर्ण हैं, क्षमा, दम और मार्दव गुणों से सम्पन्न हैं, उन काश्यप गोत्रीय देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण को मैं सविधि वन्दन (प्रणिपात) करता हूँ।५९ नन्दीसूत्र का संकलन करने वाले और आगमों को लिपिबद्ध करने वाले देवर्द्धिगणी जी को लगभग १,५०० वर्ष हो गए हैं। आजकल जो भी आगम उपलब्ध हैं, उनको लिपिबद्ध करके चतुर्विध संघ को श्रुतज्ञान की राशि प्रदान करने का श्रेय उन्हीं को मिला है। चूर्णिकार श्री जिनदासगणी एवं वृत्तिकार श्री हरिभद्रसूरि ने भी इसी तथ्य का समर्थन किया है।६० पं. मुनि श्री कल्याणविजय जी ने भी देववाचक और देवर्द्धिगणी को एक माना है। यदि दोनों एक हैं तो कल्पसूत्र के आधार पर देवर्द्धिगणी का समय भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण का ९८०वाँ वर्ष माना गया है, तदनुसार 'देववाचक' का समय भी भगवान महावीर के निर्वाण का ९८०वाँ वर्ष होना चाहिए। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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