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________________ नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन २८५ सूत्र 'नन्दी' है । अतः व्यक्ति विशेष की वन्दना से या नमस्कार महामंत्र से मंगलाचरण करने के बजाय ज्ञान के प्रतिपादक सूत्र - नंदीसूत्र का सर्वप्रथम अध्ययन वाचना - लेखन करने की मनोभावना की, तभी विशेषावश्यक भाष्य में भी मंगल के रूप में 'नमस्कार मंत्र' न लेकर आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण सर्वप्रथम (ज्ञान - प्रतिपादक सूत्र नन्दी होने से ) पाँच ज्ञानों की ही विस्तृत चर्चा की है । तत्पश्चात् आगम-वाचन, आगम-लेखन और आगम- प्रकाशन योजना में सर्वत्र नन्दीसूत्र को मंगल रूप में लेने की परम्परा चल पड़ी। इस पर से नन्दीसूत्र का अपना अलग ही महत्त्व प्रतीत होता है । " ,५५ नन्दीसूत्र की रचना किसने और कब की ? नन्दीसूत्र के रचयिता देववाचक थे । परन्तु ये देववाचक कौन थे ? इनका जन्म-नाम क्या था ? इस विषय में विद्वान् मनीषियों में मतैक्य नहीं है । कतिपय विद्वान् देववाचक और देवर्द्धिगणी दोनों को एक मानते हैं। कुछ विद्वान् दोनों को पृथक-पृथक मानते हैं । नन्दीसूत्र की स्थविरावली में सूत्रकार ने दूष्यगणी के गुणों का वर्णन करते हुए उन्हें भक्तिभावपूर्वक नमस्कार किया है। 'पयइए महुरवाणि' आदि गाथा से यह प्रतीत होता है कि सूत्रकार का आचार्य दूष्यगणी के साथ प्रत्यक्ष परिचय रहा है। नन्दीसूलचूर्णि में भी देववाचक को दूष्यगणी का शिष्य बताया गया है। इससे यह मालूम होता है कि देववाचक दूष्यगणी के शिष्य थे, ५६ जिन्होंने नन्दीसूत्र की संकलनात्मक रचना की है। किन्तु ये नन्दीसूत के रचनाकार देववाचक, आगमों को सर्वप्रथम लिपिबद्ध करने वाले देवर्द्धिगणी ही थे या अन्य थे ? इस विषय में विद्वानों में मतभेद है । मुनि श्री पुण्यविजय जी ने "नंदीसुत्तं अणुओगद्दाराई च" की प्रस्तावना में दोनों आचार्यों को भिन्न-भिन्न परम्परा के बताये हैं। साथ ही नन्दीसूत्र की रचना का एवं आगम-लेखन का काल भी भिन्न-भिन्न दर्शाया है। उन्होंने अपने मत की पुष्टि में अनेक प्रमाण भी प्रस्तुत किये हैं। जैनदर्शन के उद्भव विद्वान् पं. दलमुख मालवणिया भी दोनों आचार्यों को अलग-अलग मानते हैं। उनके अनुसार- इस सम्बन्ध में सबसे प्राचीन प्रमाण नन्दीसूलचूर्णि का है, जिसमें स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि देववाचक दृष्यगणी के शिष्य थे। दूसरी ओर कल्पसूत्र की गुर्वावली में देवर्द्धि के गुरु का नाम 'आर्य शाण्डिल्य' बताया गया है। अतः आर्य शाण्डिल्य के शिष्य देवर्द्धि और दूष्यगणी के शिष्य देववाचक दोनों एक नहीं हैं।५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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