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* २८४ * मूलसूत्र : एक परिशीलन
चूलिकाएँ हैं, जो परिशिष्ट का काम करती हैं, भूमिका का भी। वस्तुतः चूलिकाएँ आगम मन्दिर की शोभारूप हैं।
जैसे मन्दिर के ऊपर शिखर या कलश चढ़ा होने से उसकी शोभा द्विगुणित जाती है, उसी प्रकार नन्दी और अनुयोगद्वार रूप शिखर से आगम मन्दिर की शोभा में चार चाँद लग जाते हैं। इसलिए ये दोनों आगम चूलिका सूत्र के नाम से पहचाने जाते हैं। अवशिष्ट विषय को छोड़कर ये दोनों आगम अन्य आगमों का अध्ययन करने के लिए प्रस्तावना या भूमिका का भी काम करते हैं।५४ आगम-लेखन में नन्दी का मंगलाचरण के रूप में प्रथम स्थान
नन्दीसूत्र का महत्त्व उसके मूलसूत्र होने से तो है ही, किन्तु आगम-लेखन तथा आगम-प्रकाशन योजना में ‘नन्दी' को मंगलरूप मानकर प्रथम स्थान दिया गया है। यद्यपि आगमों की दृष्टि से देखा जाए तो अंग (अंगप्रविष्ट) सूत्रों का स्थान प्रथम और अंगबाह्य सूत्रों का स्थान द्वितीय है। नन्दीसूत्र की अंगसूत्रों में गणना नहीं है, तथापि आगम-वाचना एवं आगम-लेखन के प्रारम्भ में मंगलाचरण के रूप में नन्दी की वाचना या लेखन के पश्चात अन्य आगमों की वाचना दी जाती है। आचार्य देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण ने भी अंगसूत्रों और अंगबाह्य सूत्रों को लिपिबद्ध करने से पूर्व सर्वप्रथम नन्दीसत्र को लिपिबद्ध किया था। अनुयोगद्वारचूर्णि में भी कहा गया है कि नन्दी मंगलरूप है। वह चार प्रकार की है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। यहाँ (अनुयोगद्वारसूत्र-रचना के प्रारम्भ में) भी नाम, स्थापना, द्रव्यनन्दी का कथन करने के बाद भावनन्दी के अवसर पर (ज्ञान का प्रतिपादक सूत्र ‘नन्दी' होने से) लिखा- “णाणं पंचविधं पण्णत्तं।" अर्थात् ज्ञान पाँच प्रकार का कहा गया है। नंदीसूत्रचूर्णि में भी कहासर्वसूत्र, स्कन्ध के आदि में मंगलाधिकार के प्रसंग में 'नन्दी' का कथन करना चाहिए।
इससे सिद्ध होता है कि सभी आचार्यों ने 'नन्दी' को मंगल माना है। 'नन्दी' का अर्थ ही 'मंगल' है। किसी भी कार्य को निर्विघ्न सम्पन्न करने अथवा विघ्नों का उपशमन करने के लिये सर्वप्रथम मंगलाचरण करने की परिपाटी है। आचार्य देवर्द्धिगणी के मन में भी सर्वप्रथम मंगलाचरण करने की भावना जागृत हुई होगी। चूँकि 'ज्ञान' सर्वश्रेष्ठ मंगल है और उस ज्ञान का प्रतिपादक
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