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उत्तराध्ययनसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन २५
तो उससे यह फलित नहीं होता कि ज्ञातपुत्र महावीर छत्तीस अध्ययनों का प्रज्ञापन कर परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। वहाँ पर अर्थ है- बुद्ध - अवगततत्त्व, परिनिर्वृत्त-शीतीभूत ज्ञातपुत्र महावीर ने इस तत्त्व का प्रज्ञापन किया है । ६७
उत्तराध्ययन का गहराई से अध्ययन करने पर यह स्पष्ट परिज्ञात होता है कि इसमें भगवान महावीर की वाणी का संगुम्फन सम्यक् प्रकार से हुआ है। यह श्रमण भगवान महावीर का प्रतिनिधित्व करने वाला आगम है। इसमें जीव, अजीव, कर्मवाद, षट्द्रव्य, नवतत्त्व, पार्श्वनाथ और महावीर की परम्परा प्रभृति सभी विषयों का समुचित रूप से प्रतिपादन हुआ है। केवल धर्मकथानुयोग का ही नहीं, अपितु चारों अनुयोगों का मधुर संगम हुआ है। अतः यह भगवान महावीर की वाणी का प्रतिनिधित्व करने वाला आगम है। इसमें वीतराग वाणी का विमल प्रवाह प्रवाहित है। इसके अर्थ के प्ररूपक भगवान महावीर हैं किन्तु सूत्र के रचयिता स्थविर होने से इसे अंगबाह्य आगमों में रखा है। उत्तराध्ययन शब्दतः भगवान महावीर की अन्तिम देशना ही है, यह साधिकार तो नहीं कहा जा सकता; क्योंकि कल्पसूत्र में उत्तराध्ययन को अपृष्टव्याकरण अर्थात् बिना किसी के पूछे स्वतः कथन किया हुआ शास्त्र बताया है, किन्तु वर्तमान के उत्तराध्ययन में आये हुए केशी - गौतमीय, अध्ययन जो प्रश्नोत्तर शैली में हैं, वे चिन्तकों को चिन्तन के लिए अवश्य ही प्रेरित करते हैं । केशी - गौतमीय अध्ययन में भगवान महावीर का जिस भक्ति और श्रद्धा के साथ गौरवपूर्ण उल्लेख है, वह भगवान स्वयं अपने लिए किस प्रकार कह सकते हैं ? अतः ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तराध्ययन में कुछ अंश स्थविरों ने अपनी ओर से संकलित किया हो और उन प्राचीन और अर्वाचीन अध्ययनों को वीर निर्वाण की एक सहस्राब्दी के पश्चात् देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण ने संकलन कर उसे एक रूप दिया हो । ६८
सम्यक्त्व-पराक्रम
विनय : एक विश्लेषण
प्रस्तुत आगम विषय-विवेचन की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। सूत्र का प्रारम्भ होता है-विनय से । विनय अहंकारशून्यता है । अहंकार की उपस्थिति में विनय केवल औपचारिक होता है। 'वायजीद' एक सूफी सन्त थे । उनके पास एक व्यक्ति आया। उसने नमस्कार कर निवेदन किया कि "कुछ जिज्ञासाएँ हैं।" वायजीद ने कहा-“पहले झुको !” उस व्यक्ति ने कहा - " मैंने नमस्कार किया है, क्या आपने नहीं देखा ?" वा यजीद ने मुस्कराते हुए कहा- "मैं शरीर को
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