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* २६ * मूलसूत्र : एक परिशीलन -.-. झुकाने की बात नहीं कहता। तुम्हारा अहंकार झुका है या नहीं? उसे झुकाओ!" विनय और अहंकार में कहीं भी तालमेल नहीं है। अहं के शून्य होने से ही मानसिक, वाचिक और कायिक विनय प्रतिफलित होगा। व्यक्ति का रूपान्तर होगा। कई बार व्यक्ति बाह्य रूप से नम्र दिखता है, किन्तु अन्दर अहं से अकड़ा रहता है। बिना अहंकार को जीते व्यक्ति विनम्र नहीं हो सकता। विनय का सही अर्थ है-अपने आपको अहं से मुक्त कर देना। जब अहं नष्ट होता है, तब व्यक्ति गुरु के अनुशासन को सुनता है और जो गुरु कहते हैं, उसे स्वीकार करता है। उनके वचनों की आराधना करता है। अपने मन को आग्रह से मुक्त करता है। विनीत शिष्य को यह परिबोध होता है कि किस प्रकार बोलना, किस प्रकार बैठना, किस प्रकार खड़े होना चाहिए? वह प्रत्येक बात पर गहराई से चिन्तन करता है। आज जन-जीवन में अशान्ति और अनुशासनहीनता के काले-कजराले बादल उमड़-घुमड़कर मँडरा रहे हैं। उसका मूल कारण जीवन के ऊषाकाल से ही व्यक्ति में विनय का अभाव होता जाना है और यही अभाव पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय जीवन में शैतान की आँत की तरह बढ़ रहा है, जिससे न परिवार सुखी है, न समाज सुखी है और न राष्ट्र के अधिनायक ही शान्ति में हैं। प्रथम अध्ययन में शान्ति का मूल मन्त्र विनय को प्रतिपादित करते हुए उसकी महिमा और गरिमा के सम्बन्ध में विस्तार से निरूपण है। __ प्रथम अध्ययन में विनय का विश्लेषण करते हुए जो गाथाएँ दी गई हैं, उनकी तुलना महाभारत, धम्मपद और थेरगाथा में आये हुए पद्यों के साथ की जा सकती है। देखिए
"नापुट्ठो वागरे किंचि, पुट्ठो वा नालियं वए।
कोहं असच्चं कुब्वेज्जा, धारेजा, पियमप्पियं।।' –उत्तराध्ययन १/१४ तुलना कीजिए
"नापृष्टः कस्यचिद् ब्रूयात्, नाप्यन्यायेन पृच्छतः। ज्ञानवानपि मेधावी, जडवत् समुपाविशेत्॥" -शान्तिपर्व २८७/३५ "अप्पा चेव दमेयचो, अप्पा हु खलु दुद्दमो।
अप्पा दन्तो सुही होइ, अस्सिं लोए परत्थ य॥" --उत्तराध्ययन १/१५ तुलना कीजिए
“अत्तानजे तथा कयिरा, यथञ्चमनुसासति (?)। सुदन्तो वत दम्मेथ, अत्ता हि किर दुद्दमो॥" -धम्मपद १२/३
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