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________________ * २४ * मूलसूत्र : एक परिशीलन "इइ पाउकरे बुद्धे, नायए परिनिबुए। छत्तीसं उत्तरज्झाए, भवसिद्धीयसंमए॥" जिनदासगणी महत्तर ने इस गाथा का अर्थ इस प्रकार किया है-ज्ञातकुल में उत्पन्न वर्द्धमान स्वामी छत्तीस उत्तराध्ययनों का प्रकाशन या प्रज्ञापन कर परिनिर्वाण को प्राप्त हुए।६१ शान्त्याचार्य ने अपनी बृहद्वृत्ति में उत्तराध्ययनचूर्णि का अनुसरण करके भी अपनी ओर से दो बातें और मिलाई हैं। पहली बात यह कि भगवान महावीर ने उत्तराध्ययन के कुछ अध्ययन अर्थ-रूप में और कुछ अध्ययन सूत्र-रूप में प्ररूपित किये।६२ दूसरी बात उन्होंने परिनिवृत्त का वैकल्पिक अर्थ स्वस्थीभूत किया है।६३ नियुक्ति में इन अध्ययनों को जिन-प्रज्ञप्त लिखा है।६४ बृहवृत्ति में जिन शब्द का अर्थ श्रुतजिन-श्रुतकेवली किया है।६५ नियुक्तिकार का अभिमत है कि छत्तीस अध्ययन श्रुतकेवली प्रभृति स्थविरों द्वारा प्ररूपित हैं। उन्होंने नियुक्ति में इस सम्बन्ध में कोई चर्चा नहीं की है कि यह भगवान ने अन्तिम देशना के रूप में कहा है। बृहद्वृत्तिकार भी इस सम्बन्ध में संदिग्ध हैं। केवल चूर्णिकार ने अपना स्पष्ट मन्तव्य व्यक्त किया है। __ समवायांग में छत्तीस अपृष्ट-व्याकरणों का कोई भी उल्लेख नहीं है। वहाँ इतना ही सूचन है कि भगवान महावीर अन्तिम रात्रि के समय पचपन कल्याणफलविपाक वाले अध्ययनों तथा पचपन पापफलविपाक वाले अध्ययनों का व्याकरण कर परिनिवृत्त हुए।६६ छत्तीसवें समवाय में भी जहाँ पर उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययनों का नाम निर्देश किया है, वहाँ पर भी इस सम्बन्ध में कोई चर्चा नहीं है। उत्तराध्ययन के अठारहवें अध्ययन की चौबीसवीं गाथा के प्रथम दो चरण वे ही हैं जो छत्तीसवें अध्ययन की अन्तिम गाथा के हैं। देखिए "इइ पाउकरे बुद्धे, नायए परिनिबुडे। विज्जाचरणसम्पन्ने, सच्चे सच्चपरक्कमे॥" -उत्तराध्ययन १८/२४ "इइ पाउकरे बुद्धे, नायए परिनिब्बुए। छत्तीसं उत्तरज्झाए, भवसिद्धीय संमए॥ __-वही ३६/२६९ बृहद्वृत्तिकार ने अठारहवें अध्ययन की चौबीसवीं गाथा के पूर्वार्द्ध का जो अर्थ किया है, वही अर्थ छत्तीसवें अध्ययन की अन्तिम गाथा का किया जाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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