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* २८२ * मूलसूत्र : एक परिशीलन
मूल और छेद के नाम से सूत्रों का विभाजन कब हुआ? यह निश्चित रूप से तो नहीं कहा जा सकता। उत्तराध्ययनसूत्र एवं दशवैकालिकसूत्र की नियुक्ति, चूर्णि एवं वृत्तियों (टीकाओं) में कहीं भी मूलसूत्र के सम्बन्ध में चर्चा नहीं है।५० इस पर से प्रतीत होता है कि विक्रम की ११वीं शताब्दी तक मूलसूत्र के नाम से सूत्रों का विभाजन नहीं हुआ था। विक्रम की ११वीं शताब्दी में 'श्रावक विधि' के लेखक धनपाल ने ४५ आगमों का, तथैव विक्रम की १३वीं शताब्दी में आचार्य प्रद्युम्नसूरि ने भी विचारसार-प्रकरण' में ४५ आगमों का तो निर्देश किया है, परन्तु मूलसूत्रों के रूप में विभाग की चर्चा नहीं की है। इसके पश्चात् विक्रम संवत् १३३४ में रचित 'प्रभावकचरित्र' में तथा उसके पश्चात् समयसुन्दरगणी द्वारा रचित 'समाचारीशतक' में मूलसूत्र के नाम से कतिपय आगमों के विभाजन का उल्लेख मिलता है। फलितार्थ यह है कि मूलसूत्रों के रूप में विभाजन की स्थापना १३वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुई है।५१
किन आगमों को मूलसूत्र कहा जाए? इस सम्बन्ध में भी विभिन्न मनीषियों ने पृथक्-पृथक् मत प्रकट किये हैं। श्वेताम्बर स्थानकवासी और तेरापंथ सम्प्रदाय उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार, इन चार सूत्रों को मूलसूत्र मानते हैं। इन चारों के मूलसूत्र मानने का कोई उल्लेख आगमों में नहीं मिलता। जर्मन विद्वान् शार्पेण्टियर के कथनानुसार ये चारों सूत्र भगवान महावीर द्वारा कहे हुए थे इसलिए इन्हें मूलसूत्र माना गया है, यह कथन भी यथार्थ नहीं है, क्योंकि दशवैकालिकसूत्र आचार्य शय्यम्भवसूरि प्रणीत माना जाता है। नन्दीसूत्र भी देववाचकणी द्वारा विरचित है। डॉ. शूबिंग का मत है कि इन चारों सूत्रों में साधु-जीवन के मूलभूत नियमों का उपदेश होने के कारण इन्हें मूलसूत्र कहा जाता है, किन्तु यह मत भी समीचीन नहीं है। जैनतत्त्वप्रकाश' के अनुसार ये शास्त्र सम्यक्त्व की जड़ को सुदृढ़ बनाते हैं, इसलिए इन्हें मूलसूत्र कहा जाता है, यह मत भी पूर्णतया घटित नहीं होता। इसी के सन्दर्भ में कतिपय मनीषियों का मत है कि इन चार आगमों में मुख्य रूप से श्रमण आचार सम्बन्धी मूल गुणों--महाव्रत, समिति, गुप्ति, दशविध श्रमण धर्म आदि का निरूपण है जो श्रमण जीवनचर्या में मूल रूप से सहायक हैं तथा जिनका अध्ययन और आचरण श्रमणों के लिए सर्वप्रथम अपेक्षित है, उन्हें मूलसूत्र कहा गया है।५२
इनसे भी प्रबल युक्ति यह है कि मोक्षमार्ग एवं आत्मा के पूर्ण विकास के मुख्यतया चार मूल साधन हैं-सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र एवं सम्यक् तप। उत्तराध्ययन में मुख्य रूप में सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र और
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