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नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन २८१
त्याग करता है । फिर प्रदक्षिणा करता है । उपधान (तप) करता है, अन्य कई अनुष्ठानों को सम्पादित करके अन्त में फिर आगम स्वाध्याय सम्बन्धी कायोत्सर्ग करता है। इस समस्त अनुष्ठान को योगविधि या योगोद्वहन विधि कहते हैं । योगविधिपूर्वक नन्दीसूत्र का अध्ययन करना - कराना योगनन्दी कहलाता है। इस विधि के साथ भी नन्दीसूल के पाठ को मूल, अर्थ और व्याख्या के साथ पढ़ने का विधान है।
योगनन्दी के सम्बन्ध में कतिपय आचार्यों का मत है कि 'योगनन्दी' में नन्दी सूत्र का संक्षिप्त सार प्रस्तुत किया जाता है । उसमें ज्ञान के आभिनिबोधिक आदि ५ मुख्य प्रकार बताये जाते हैं। उनमें से अनुयोगद्वारसूत्र में कथित वक्तव्य के अनुसार केवल श्रुतज्ञान के ही उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग हो सकते हैं । अर्थात् श्रुतज्ञान में ही अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था हो सकती है । और श्रुत में भी अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य आगमों के ही उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा, अनुयोग का विधान है। निष्कर्ष यह है कि प्रस्तुत योगनन्दी में ५ मुख्य ज्ञान के नामोल्लेख करके इनके स्रोत के रूप में आचारांग आदि १२ अंगप्रविष्ट श्रुतों (अंगशास्त्रों) का तथा अंगबाह्य में कालिक के अन्तर्गत ३९ सूत्रों का और उत्कालिक के अन्तर्गत दशवैकालिकसूत्र आदि ३१ सूत्र हैं, जिनका अंगबाह्य के अन्तर्गत नन्दीसूत्र में आवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त के नाम से उल्लेख करके समावेश किया गया है। जो भी हो, यह भी 'योगनन्दी' का एक विधिपरक रूप है। ४८
नन्दी सूत्र आदि सूत्रों की मूल संज्ञा कब से और क्यों ?
आगम साहित्य का अनुशीलन करने से ज्ञात होता है कि सर्वप्रथम पूर्व और अंग के रूप में विभाजन का उल्लेख समवायांगसूत्र में है । चतुर्दश पूर्वों (पूर्वशास्त्रों ) की रचना द्वादशांगी से पहले की गई थी, इसीलिए पूर्व शब्द से उनका नामोल्लेख किया जाने लगा। ४९ किन्तु उसके पश्चात् उपांग, मूल और छेद के रूप में सूत्रों का विभाजन एवं नामकरण सर्वप्रथम किसने और कब किया? यह अन्वेषण का विषय है। नन्दीसूत्र में अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य (या अनंगप्रविष्ट) के नाम से दो भागों में सूत्रों का विभाजन अवश्य किया गया है, किन्तु उपांग, मूल और छेद, ये विभाग वहाँ नहीं किये गए हैं। मालूम होता है, उपांग आदि शब्दों का प्रयोग बाद में प्रचलित हुआ है। हाँ, नन्दीसूत्र में उपांग के बदले अंगबाह्य का प्रयोग अवश्य हुआ है।
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