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२८० मूलसूत्र : एक परिशीलन
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पढ़े हुए आगम ज्ञान को स्थिर रखने का निर्देश, (३) अनुज्ञा (अणुण्णा) = योग्य शिष्य को पढ़ाने- अध्ययन करने की आज्ञा, और (४) अनुयोग (अणुओगो) पठित आगम की अनुयोग पद्धति से व्याख्या करने की स्वीकृति । अतः अनुज्ञानन्दी का रहस्यार्थ यह है कि नन्दीसूत्र का पठन-पाठन करने की उद्देशादि द्वारा क्रमशः गुरु या आचार्य द्वारा अनुज्ञा प्राप्त होना । इसका कारण यह है कि प्राचीनकाल में शास्त्राध्ययन के प्रमुख स्रोत थे - गुरु या आचार्य । शास्त्र लिखे नहीं जाते थे । गुरु से वाचना लेकर कण्ठस्थ करने की परम्परा थी । ऐसी स्थिति में गुरुगम व्यवस्था का विकास हुआ जिसका प्रतिपादन अनुयोगद्वार मूल, वृत्ति और चूर्णि में उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग, इन चार पदों द्वारा किया गया है । इस प्रकार गुरु अपने शिष्य को पंच ज्ञान रूप नन्दी के साथ भावात्मक अभिन्नता प्राप्त कराकर उसे भावनन्दी बना देता, गण धारण करने की अनुज्ञा देता और इसे नन्दीसूत्र में पृथक् एवं संस्कारित करने हेतु अनुज्ञानन्दी अथवा लघुनन्दी नाम दिया गया । वस्तुतः पूर्वोक्त उद्देशादि चारों से शिष्य को संस्कारित करने हेतु इसका नाम अनुज्ञानन्दी दिया गया है। इस विधि में गुरु अपने शिष्य की आगम ज्ञान प्राप्त करने की योग्यता, विनीतता तथा जिज्ञासा और समर्पण वृत्ति को परखता है, तदनन्तर ही उस पूर्वोक्त चार चरणों में नन्दीसूत्र के पठन-पाठन आदि की अनुज्ञा देता है।
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नन्दीसूत्र का तीसरा रूप है - 'योगनन्दी' । नन्दी के पूर्व योग शब्द जोड़कर योगनन्दी शब्द निष्पन्न हुआ है। योग का यहाँ अर्थ है - तप । प्राचीनकाल में गुरु किसी भी आगम को पढ़ने की - वाचना लेने की अनुज्ञा जब शिष्य को देता था, तब उस आगम का अध्ययन कराने के लिए शिष्य को वह योगोद्वहन कराता था। प्रत्येक आगम का अध्ययन या वाचना गुरु से करते समय अमुक-अमुक तप का विधान था । श्रुत ( शास्त्र या आगम) का अध्ययन तप के बिना नहीं हो सकता था | योगविधि ( योगोद्वहन) में शिष्य को केवल बाह्य तप ही नहीं करना पड़ता था, उसके लिए पाँच अंगों सहित स्वाध्याय, ध्यान, विनय, वैयावृत्य तथा कायोत्सर्ग के रूप में आभ्यन्तर तप भी करना आवश्यक होता था । संक्षेप में, पूर्वोक्त प्रकार से गुरु की अनुज्ञा प्राप्त होने के बाद शिष्य स्वाध्याय ( अध्ययन ) के लिए पूर्व तैयारी करता है । इस योगविधि में बार-बार विनयपूर्वक वन्दन करने का विधान है जिसके दो उद्देश्य हैं - अहंकार - विसर्जन और प्रमाद - त्याग। वन्दन के पश्चात् पच्चीस - श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग करता है तथा द्रव्य से तथा भाव से भी वह काया के प्रति ममता- मूर्च्छा का
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