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________________ * २७८ * मूलसूत्र : एक परिशीलन अध्ययन या विषय उसके ज्ञान में पूर्ण रूप से न झलके, तब तक वह नोआगमतः भावनन्दी ही कहलाता है। तदनन्तर जब वह सम्पूर्ण नन्दीसूत्र को उपयोग सहित एकाग्रता एवं मनोयोग के साथ जान लेता है तब उसे आगमतः भावनन्दी कहा जा सकता है। ३ भावनन्दी बनकर आगमाध्ययन करने से परम लाभ की प्रेरणा नन्दी शब्द के उपर्युक्त चार निक्षेपों पर से यह ध्वनित होता है कि ज्ञानपिपासु एवं मोक्ष के परम आनन्द तथा अव्याबाध सुख की प्राप्ति के साधनरत रत्नत्रय-साधना वीतरागता-प्राप्ति की साधना में सफलता चाहने वाले साधक वर्ग को तन्मयतापूर्वक एकाग्रता के साथ नन्दीसूत्र वर्णित सम्यक् ज्ञान में उपयोगयुक्त होकर पहले नोआगमतः, फिर क्रमशः आगे बढ़ते-बढ़ते आगमतः भावनन्दी बनने का पुरुषार्थ करना चाहिए, इससे वह साधक अपने ध्येय में तन्मय होकर नन्दीमय बन सकेगा। भगवान महावीर ने कहा है-"किसी भी आगम का उपयोगयुक्त होकर अध्ययन (पंचांग से युक्त स्वाध्याय) करने से सम्यक् ज्ञान का लाभ होता है। मन एकाग्र हो जाता है, आत्मा श्रुतज्ञान से धर्म में स्थिर रह सकती है। स्वयं धर्म में स्थिर रहता हुआ आगमाध्येता दूसरों को भी धर्म में स्थिर कर सकता है। अतः श्रुतज्ञान (आगमिक श्रुतज्ञान) चित्त-समाधि का मुख्य कारण है।" वस्तुतः आगम ज्ञान आत्मा में अद्भुत शक्ति, निर्भयता, स्फूर्ति एवं अप्रमत्तता को जगाता है। नन्दीसूत्र आत्मा के प्रमुख गुण ज्ञान के माध्यम से आत्म-गुण समृद्धि को वृद्धिंगत करने की प्रेरणा देता है। श्रद्धा, भक्ति, बहुमान के साथ भावपूर्वक उपयोगयुक्त होकर आगमाध्ययन करने से अन्तःकरण में वीतरागता जागती है जिससे क्लेश, कषाय, राग, द्वेष, मोह, आसक्ति, घृणा, मनोमालिन्य, हीनभावना, अहंकार, ममकार, भय तथा हिंसादि की भावना इत्यादि समस्त विभावों और विकारों का सहज ही शमन हो जाता है। फिर नन्दीसूत्रादि आगम तो दर्पण हैं, इनके मनोयोगपूर्वक अध्ययन (पंचांग सहित स्वाध्याय) करने से अन्तःकरण में वीतरागता, समता, सहिष्णुता, आत्मौपम्य भावना, मैत्री आदि भावना जागती है, जिससे अपने. अन्तरतम में छिपे हुए काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दोष, अपराध, अवगुण, भूल आदि स्पष्ट झलकने लगते हैं। आत्मा को परमात्मा बनने की प्रेरणा करने वाले परम गुरु आगम ही हैं। आगम ज्ञान से मन और इन्द्रियाँ समाहित रहती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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