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* २७४ * मूलसूत्र : एक परिशीलन श्रुत शब्द का अर्थ और तात्पर्यार्थ ____ हाँ, तो श्रुत का सम्बन्ध श्रवण से होने से “जो सुनने में आए, वह श्रुत है।" सामान्यतया श्रुत का 'अभिधा' की दृष्टि से सीधा और स्पष्ट अर्थ किया गया'शब्द'। किन्तु जैनशास्त्रकारों को श्रुत का इतना ही अर्थ अभीष्ट नहीं था। ऐसे अर्थ से कोई भी अहितकर, हिंसावर्द्धक एवं अज्ञान का अन्ध-विश्वास प्रेरक शब्द भी श्रुत हो जायेगा। अतः ‘लक्षणा' से अर्थ किया गया-वह 'शब्द' जो आप्त द्वारा उपदिष्ट हो, यथार्थ हो, सर्वहितकर हो, प्रमाण हो, जनमंगलकारी हो, वह 'श्रुत' है। आगे चलकर 'श्रुत' शब्द भी पूर्वोक्त आगम और शास्त्र का पर्यायवाची बन गया। श्रुत शब्द श्रुत से धीर-धीरे व्यापक श्रुतज्ञान तक पहुँच गया। आप्त-वचनों को ही पूर्ववत् शब्द प्रमाण रूप आगम कहा जाने लगा। सिद्धसेनगणी ने श्रुतज्ञान के रूप में श्रुत शब्द का लक्षण इस प्रकार किया है
“इन्द्रिय-मनोनिमित्तं ग्रन्थानुसारि-विज्ञानं यत् तत् श्रुतम्।” इन्द्रियों और मन के निमित्त से होने वाला ग्रन्थानुसारी अर्थात् आप्त-वचनानुसारी जो ज्ञान विज्ञान है, वह श्रुत (श्रुतज्ञान) है। शास्त्रकारों ने श्रुतज्ञान के दो रूप भी बताए हैं-द्रव्यश्रुत और भावश्रुत। कागज, स्याही और लेखनी आदि से, पुस्तक का ग्रन्थ के रूप में जो साधन निर्मित हो, वह द्रव्यश्रुत है, जबकि आत्मा में अमुक आप्त-वचनरूप शास्त्र या ग्रन्थ से आत्मा में जो सम्यक् ज्ञान समुद्भूत हो-प्रकट हो, वह भावश्रुत है। सम्यक् श्रुत ही यहाँ उपादेय है, मिथ्या श्रुत नहीं
यद्यपि जीवन में अनेक लोक-व्यवहारों में किसी न किसी श्रुत (श्रुतज्ञान) पुस्तकादि का आधार रहता है, किन्तु सभी श्रुतज्ञान (श्रुत) यथार्थ भावों का पोषक एवं सम्प्रेरक नहीं रहता। श्रुत के बहाने कभी-कभी राग, द्वेष, मोह, अज्ञान, अन्ध-विश्वास, मिथ्यात्व आदि का पोषक वचन या शास्त्र भी श्रुत बन जाता है। फलतः पाठक या श्रोता को वह श्रुत मोक्षमार्ग की ओर न ले जाकर कुपथ की ओर ले जाता है। ऐसे श्रुत को सम्यक् श्रुत नहीं कहा
जाता।३८
यहाँ सम्यक् श्रुत ही उपादेय है, मिथ्या श्रुत नहीं। यद्यपि नन्दीसूत्र में सम्यक् श्रुत और मिथ्या श्रुत दोनों का परिचय और उल्लेख दिया गया है, ताकि पाठक, श्रोता या साधक वर्ग किसी भ्रम में न पड़े, सम्यक् शास्त्र समझकर तदनुसार आचरण न कर बैठे। इसलिए शास्त्र के रूप में उपादेय या सम्यक्
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