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________________ नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * २७१ -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-: ..-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ किया-“शास्यते-अनुशिष्यतेऽनेनेति शास्त्रम्।' यानी जिसके द्वारा प्राणियों को भलीभाँति धर्ममार्ग में सुशिक्षित किया जाय अथवा देव, गुरु और धर्म के अनुसार (मर्यादा में) जो रखता है या अनुशासन में रहने की हित शिक्षा देता है, वह शास्त्र है। अथवा जिनका चित्त राग-द्वेष से उद्धत, मलिन एवं कलुषित हो रहा है, उन्हें सद्धर्म में अनुशासित करता है। तात्पर्य यह है कि अहिंसा आदि आत्म-धर्म से जिनका चित्त विमुख है, उन्हें शिक्षित-प्रेरित करके सद्धर्म में लाता है, वह शास्त्र है। शास् धातु के साथ 'त्रैङ्पालने' धातु का 'त्र' शब्द पालनार्थक है जिसका अर्थ है-जो सभी प्रकार हिंसादि जनित दुःखों से त्राण = रक्षण करता है, वह शास्त्र है। नन्दीसूत्र भी इसी प्रकार का शास्त्र है, जो आत्मा के ज्ञान, दर्शन, आनन्द और आत्म-बल रूप धर्म में जीव को शिक्षित-अनुशासित करता है तथा अज्ञान-मिथ्यात्वादि जनित दुःखों से बचाता है। अज्ञान-मोहादि के अन्धकार से बचाकर सम्यक् ज्ञानादि आत्म-धर्म में स्थिर करता है। आचार्य समन्तभद्र ने भी 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' में शास्त्र शब्द को छह लक्षणों से निरूपित किया है "आप्तोपज्ञमनुलंध्यमदृष्टेष्टविरुद्धकम्। तत्त्वोपदेशकृत् सार्वं शास्त्रं कापथ-पट्टनम्॥५३२ अर्थात् जो आप्त द्वारा कथित-प्रज्ञप्त हो, जिसका उल्लंघन कोई न कर सकता हो, अर्थात् जिसका प्रतिपादन तर्कों से अकाट्य हो, जो प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणों से विरुद्ध न हो, जो तत्त्व का उपदेश करता हो, जो सर्व जीवों के लिए हितकर हो और कुमार्ग का निषेध (खण्डन) करता हो, ऐसे छह लक्षणों से युक्त हो, वह शास्त्र है। नन्दीसूत्र में शास्त्र के ये छह लक्षण घटित होते हैं, इसलिए शास्त्र है। सूत्र शब्द की विविध पहलुओं से मीमांसा सूत्र-“सूत्रयति सूचयति यथार्थमर्थमिति सूत्रम्।" इस निर्वचन के अनुसार सूत्र उसे कहते हैं, जो यथार्थ वस्तुतत्त्व को सूचित करता है। जो तीर्थंकरों के द्वारा अर्थरूप में मुख-कमल से निकलकर गणधरों द्वारा सूत्ररूप में ग्रन्थितरचित किया गया है, उसे भी ‘सूत्र' कहा जाता है। नन्दीसूत्र में भी 'नन्दी' के साथ सूत्र शब्द इसी हेतु से जोड़ा गया है। नन्दीसूत्र का संकलन भी तीर्थंकरों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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