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* २७०मूलसूत्र : एक परिशीलन
अन्य अपेक्षा से आगम के तीन प्रकार और वे भी आप्त से सम्बद्ध __दूसरी दृष्टि से भी आगमों का निरूपण किया गया है-आगम तीन प्रकार के होते हैं-"अत्तागमे, अनन्तरागमे, परंपरागमे।"३० आत्म और आप्त इन दोनों का प्राकृत भाषा में 'अत्त' शब्द बनता है। जो अर्थ तीर्थंकर भगवान प्ररूपित एवं प्रज्ञप्त करते हैं, वह आत्मागम या आप्तागम कहलाता है। जो अर्थ तीर्थंकर भगवान के मुखारविन्द से गणधरों ने सुना और सूत्र-रचना की, इसलिए गणधरों के लिए तीर्थंकर-वचन अनन्तरागम होते हैं। गणधर-शिष्यों के लिए वे ही आगम (सूत्र) अनन्तरागम हैं, अर्थरूप से वे शास्त्र परम्परागत हैं। तथैव गणधर के अनुगामी साधुवर्ग के लिए वे आगम अर्थरूप में न तो आप्तागम हैं, न ही अनन्तरागम हैं, किन्तु वे परम्परागम हैं। जैनधर्ममान्य ‘आगम' के अतिरिक्त अन्य पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग
जैनधर्ममान्य धर्मग्रन्थों के आगम के अतिरिक्त शास्त्र, सूत्र, सुप्त, सूक्त एवं श्रुत आदि नाम भी प्रचलित हैं। विविध लौकिक प्रयोजनों के लिए भी संसार में अन्य विद्याओं के लिए भी शास्त्र शब्द का प्रयोग होता है। जैसे-कोकशास्त्र, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, विधिशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, नीतिशास्त्र आदि।
शास्त्र-परन्तु यहाँ लोकोत्तर प्रयोजन के लिए धर्मशास्त्र के सन्दर्भ में जैनागमों को जैनशास्त्र कहा जाता है, पूर्वोक्त लौकिक शास्त्रों से भी यहाँ कोई प्रयोजन नहीं है और न ही पूर्वापर विरोधी, अहिंसा आदि के विपरीत हिंसादि का प्ररूपण करने वाले ग्रन्थ चाहे धर्मग्रन्थ कहलाते हैं, वे भी जैनशास्त्र की परिभाषा में या परिधि में नहीं आते। आचार्य उमास्वाति ने 'प्रशमरति' ग्रन्थ में शास्त्र की बहुत ही युक्तिसंगत एवं सिद्धान्तसंगत व्याख्या प्रस्तुत की है
"शास्विति वाग्विधिवद्भिर्धातुः पापठ्यतेऽनुशिष्टार्थः। डिति पालनार्थे विपश्चितः सर्वशब्दविदाम्॥ यस्माद् राग-द्वेषोद्धतचित्तान् समनुशास्ति सद्धर्मे।
संत्रायते च दुःखाच्छास्त्रमिति निरुच्यते सद्भिः॥३१ अर्थात् संस्कृत भाषा की विधि के ज्ञाता शब्दशास्त्रियों ने “शासु अनुशिष्टौ।" अर्थात् अनुशासनार्थक शास् धातु (क्रिया) से शास्त्र शब्द का
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