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नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * २६९ *
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व्यवहार दोनों दृष्टियों से सम्यक् दर्शन, ज्ञानादि मोक्षमार्ग की साधना में अहर्निश तत्पर होता है, अथवा वीतरागता-सम्पन्न जीवन होता है। आप्त-पुरुष का जीवन सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्रमय बन जाता है। नन्दीसूत्रादि को आगम की कोटि में क्यों माना जाए ? ___ कोई कह सकता है कि नन्दीसूत्र को आगम की कोटि में कैसे माना जा सकता है? क्योंकि यह तो स्पष्ट ही देववाचकगणी द्वारा संकलित या रचित है
और देववाचक जी स्वयं वीतराग और १८ दोषों से रहित नहीं थे। इसका समाधान यह है कि आवश्यकसूत्र में आगम के तीन प्रकार बताये गये हैं(१) सूत्रागम, (२) अर्थागम, और (३) तदुभयरूप आगम।२८ इनमें से अर्थागम यानी अर्थरूप आगम मुख्य है, जो मूल जिनोक्त वचन होता है, जिसका आयात सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तीर्थंकर भगवान से हुआ है। उसी से सूत्र रूप में आगम रचना गणधर करते हैं। और तदुभयागम उक्त दोनों द्वारा निर्मित है। अर्थात् श्रुतकेवली तथा स्थविरों द्वारा निर्मित है। इनमें चतुर्दशपूर्वधर, दशपूर्वधर एवं नवपूर्वधर भी हैं।
अतः नन्दीसूत्र भले ही देववाचकगणी की रचना है, किन्तु अर्थरूप से यह आगमों का स्रोत सर्वज्ञ तीर्थंकर की अर्थरूप से आगत आगमिक वाणी ही है। इसलिए परम्परा से यह आप्त-वचन और वीतराग-प्रणीत ही माना जाएगा। द्वादशांगी वाणी सीधी अर्थरूप से भगवदुक्त मानी जाती है, उसे अंगप्रविष्ट आगम या गणिपिटक कहा जाता है। शेष आगम अंग-बाह्य या अनंग-प्रविष्ट या उपांग कहलाते हैं, किन्तु उनका अर्थरूप में परम्परागत सम्बन्धी तीर्थंकर वचनों से माना गया है। उनमें जो भी ज्ञान है, वह तीर्थंकर वचनानुसारी है, वह सब आप्त-वचनानुगत होने से आगम माना गया है। ___ अतः जिन धर्मग्रन्थों का ज्ञान राग-द्वेष, पक्षपात या एकान्तवाद से मलिन हो रहा है, वह निर्दोष और आप्त-प्रणीत या आप्त-प्ररूपित नहीं माना जाता, उसमें कई हिंसा, असत्य आदि के समर्थन-वाचक वचन होने से वह निर्दोष. प्रामाणिक एवं वीतराग-प्रणीत नहीं माना जा सकता। जैन परम्परा के वर्तमान में जितने भी अंग-प्रविष्ट रूप आगम हैं, उनके रचयिता गणधर सुधर्मा स्वामी हैं तथा अंग-बाह्य शास्त्रों के रचयिता श्रुतकेवली, पूर्णधर या अन्य स्थविर हैं, जिनके नाम-निर्देश मिलते हैं। अतः नन्दीसूत्र भी आगम की कोटि में आता है।
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