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________________ * २६८ * मूलसूत्र : एक परिशीलन विशेषता है, जिससे इसमें प्ररूपित या प्रतिपादित ज्ञान के वर्णन को प्रामाणिक या विश्वस्त माना जाए? जैनधर्म के गणधरों तथा महामनीषी आचार्यों ने समस्त धर्मशास्त्रों को आगम कहा है। आगम के दो लक्षणात्मक अर्थ प्राचीन आचार्यों ने किये हैं-(१) अर्थ रूप से तीर्थंकर के वीतरागता प्रेरक प्रवचन हैं, (२) सूत्र रूप से गणधर और श्रुतकेवली-प्रणीत साहित्य को आगम कहते हैं। जिस ज्ञान का मूल स्रोत तीर्थंकर भगवान हैं, सूत्र रूप से गणधर हैं तथा आचार्य परम्परानुसार जो श्रुतज्ञान आया है, आ रहा है, वह आगम कहलाता है। अथवा आप्त-वचन को आगम कहते हैं। अनुयोगद्वार वृत्ति के अनुसार आगम का अर्थ है-जो गुरु-परम्परा से अविच्छिन्न गति से आ रहा है, वह आगम कहलाता है तथा जिसके द्वारा सब ओर से जीवादि पदार्थों को जाना जाता है। आचारांग टीका में आप्त द्वारा प्रणीत को आगम कहा है। जैनधर्ममान्य सभी शास्त्र आगम क्यों कहलाते हैं ? ___कोई यों भी कह सकता है कि यों तो प्रत्येक धर्म-सम्प्रदाय वाले अपनेअपने शास्त्रों को आप्त-रचित कह सकते हैं। फिर नन्दीसूत्र आदि को जो आप्तप्रणीत कहा जाता है, उसमें क्या विशेषता है ? प्रथम समाधान तो यह है कि अन्य धर्मों ने अपने धर्मग्रन्थों या शास्त्रों को आगम नहीं कहा है जबकि जितने भी जैनधर्मशास्त्र हैं, वे आगम कहलाते हैं, क्योंकि वे आप्त-प्रणीत हैं। आप्त का स्वरूप तत्त्वार्थ सिद्धसेनीया वृत्ति के अनुसार आप्त का अर्थ है-जो राग-द्वेषादि विभावों से रहित हो। अथवा जो यथार्थ वक्ता हो। प्रमाणनयतत्त्वालोक के अनुसार-आप्त वह है, जो अभिधेय वस्तु को यथावस्थित जानता हो, और उस ज्ञान के अनुसार यथार्थ कहता हो। जिसका किसी के प्रति पक्षपात न हो और जो १८ दोषों से रहित हो उसे भी आप्त कहा जाता है। आप्त के उपर्युक्त लक्षणों की कसौटी पर जब अन्यान्य धर्मों को कसते हैं, वे प्रायः खरे नहीं उतरते। तथाकथित कतिपय धर्मशास्त्रों के रचयिता स्वयं राग, द्वेष, काम, मोह आदि से युक्त होने से उन्होंने हिंसादिपरक विधान अपने ग्रन्थों में किया है, अतः राग, द्वेषादि १८ दोषों से रहित न हों, पूर्ण वीतरागता से युक्त न हों, और तो और वे सम्यक् दृष्टि सम्पन्न न हों, अनेकान्त दृष्टि से सापेक्ष वचन न होकर जिनके वचन एकान्तवाद पोषक हों, उन्हें आप्त कैसे कहा जा सकता है ? जैनधर्ममान्य आप्त केवल भाषणवान नहीं होता, उसके जीवन में निश्चय और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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