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________________ नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन २६७* आत्मा में निहित शुद्ध ज्ञान की प्रतीति नन्दीसूत्र से आत्मा का निजी मुख्य गुण ज्ञान है। आत्मा में ज्ञान का कितना अक्षय भण्डार है ? उस ज्ञान को प्रगट करने के कौन-कौन से माध्यम हैं ? तथा यह भी प्रश्न उद्भूत होता है कि जब ज्ञान आत्मा में है ही, तब उसे बताने या प्रगट करने की क्या आवश्यकता है? इसी प्रकार ज्ञान तो भावात्मक है, वह द्रव्यात्मक नहीं है, छद्मस्थ (अल्पज्ञ) व्यक्तियों द्वारा प्रत्यक्ष दृश्य नहीं है, ऐसी स्थिति में आत्मा में निहित ज्ञान की प्रतीति, उसे प्रगट करने की रुचि, उक्त ज्ञान के प्रति श्रद्धा और भक्ति (बहुमान), विनय और निष्ठा कैसे हो? इसका समाधान है-'नन्दीसूत्र' । नन्दीसूत्र के अध्ययन या श्रवण, मनन, निदिध्यासन, वाचना, पृच्छा, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा एवं धर्मकथा, इन पंचांग रूपों से स्वाध्याय करने से आत्मा में निहित ज्ञान भण्डार का पूर्णतया परिचय हो जाता है। नन्दीसूत्र में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान, इन मुख्य पाँच प्रकार के ज्ञानों का विस्तृत वर्णन है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान किस-किस प्रकार से, किस-किस इन्द्रिय या मन के माध्यम से प्रगट होता है। सम्यक् ज्ञान और मिथ्या ज्ञान में क्या अन्तर है ? इन पाँच ज्ञानों में प्रथम के चार ज्ञान कम से कम कितने हो सकते हैं ? इन चारों की उत्कृष्टता कितनी है ? इन पाँचों में सर्वोत्कृष्ट एवं पूर्ण ज्ञान कौन-सा है ? इत्यादि समस्त उल्लेख नन्दीसूत्र में पाया जाता है। आत्मा की चारों प्रकार की गुण-सम्पदा या समृद्धि नन्दीसूत्र के द्वारा भलीभाँति मालूम हो सकती है। इस शास्त्र का अध्ययन-मनन करके कोई भी व्यक्ति ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से आत्मा पर आये हुए अज्ञान के सघन आवरण को दूर कर सकता है। अमुक-अमुक ज्ञान का अमुक-अमुक मात्रा में आवरण दूर होने पर व्यक्ति को 'स्व' और 'पर' का भेदविज्ञान हो जाने से वह आत्मा के निज गुणों व आत्म-भावों में रमण कर सकता है। फिर पर-भावों और कषायादि विभावों से होने वाले संक्लेश, संघर्ष, राग, द्वेष, आसक्ति, घृणा, द्रोह, मोह इत्यादि विकारों से वह दूर रह सकता है। इस आत्मिक ज्ञान का उद्देश्य और महत्त्व समझाने हेतु नन्दीसूत्र की रचना की गई है। नन्दीसूत्र आगम है इसलिए निर्दोष और प्रामाणिक है ___ अब प्रश्न होता है-सभी धर्मों ने और धर्म-प्रवर्तकों ने अपने-अपने धर्मग्रन्थ, शास्त्र या श्रुत की रचना की है और उस-उस शास्त्र के माध्यम से ज्ञान दिया है या ज्ञान का निरूपण किया है, फिर नन्दीसूत्र में ऐसी क्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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