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________________ * २६६ * मूलसूत्र : एक परिशीलन को असीम आनन्द का अनुभव होता है, वैसे ही आत्मा में निहित ज्ञान के अक्षय भण्डार का नन्दीसूत्र के द्वारा यानि नन्दीसूत्र के श्रवण, मनन, चिन्तन, निदिध्यासन एवं पुनः-पुनः अध्ययन (स्वाध्याय) के द्वारा पता लगने से भी असीम आनन्द की अनुभूति होती है। आचार्य ने इसे एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया है एक श्रेष्ठी ने अपनी बहुमूल्य रत्नमंजूषा किसी अज्ञात स्थान में निधान (गाढ़) करके रख दी। अपनी बही में उसका उल्लेख कर दिया। उसने बही में रत्नमंजूषा में रखे उन रत्नों की संख्या, नाम, गुण, लक्षण और मूल्य आदि की बाकायदा सूची बनाकर लिख दिया। सेठ की अकस्मात् हृदयगति अवरुद्ध हो जाने से उसका देहान्त हो गया। मरते समय या मृत्यु से पूर्व सेठ ने पुत्रों के समक्ष न तो उस रत्नमंजूषा का जिक्र किया, न ही बही उनको सौंपी। फलतः वे पुत्र धन के अभाव में दरिद्र हो गये। कालान्तर में उनके प्रबल पुण्य-योग से उन्हें वह बही मिल गई, जिसमें रत्नों की बाकायदा सूची तथा रत्नमंजूषा कहाँ रखी हुई है, उसका अता-पता लिखा था। उसे पढ़कर पुत्रों ने रत्नमंजूषा खोज निकाली। रत्नमंजूषा मिल जाने पर उनके आनन्द का पार न रहा। इसी प्रकार नन्दीसूत्र भी आत्म-गुणरूप विविध ज्ञान-रत्नों की बही है। इस नन्दीरूप बही के प्राप्त हो जाने पर आत्मा में निहित विविध ज्ञान-रत्नों के अक्षय भण्डार का इसमें उल्लेख पढ़ने पर तथा उन ज्ञान-रत्नों को स्वाध्यायादि द्वारा पाने से असीम आनन्द की अनुभूति किसे और क्यों नहीं होगी? नन्दीसूत्र का पंचांगयुक्त स्वाध्याय द्रव्यानन्द एवं भावानन्द का कारण ऐसे चिन्तामणिरत्न सम नन्दीसूत्र का स्वाध्याय करने से शुभ भाव उत्पन्न होते हैं। शुभ भावों से देव, गुरु, धर्म और शास्त्र के प्रति श्रद्धा दृढ़ होती है, आत्म-बल बढ़ता है। शुभ भावों से पुण्यानुबन्धी पुण्य का बन्ध होता है, जोकि द्रव्य-आनन्द का कारण है। पंचविध अंगों के साथ स्वाध्याय करने से भावों की विशुद्धि हो रही हो तो उससे सकाम निर्जरा होने की सम्भावना है। निर्जरा से पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय होता है। साथ ही स्वाध्याय से आते हुए कर्मों का निरोध करने से संवर भी होता है। इस प्रकार कर्मों का भार ज्यों-ज्यों हल्का होता है, त्यों-त्यों अपूर्ण आनन्द पूर्णता की ओर बढ़ता जाता है।२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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