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नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * २६५ *
बहुकालिक दो प्रकार का है। अल्पकालिक द्रव्यानन्द क्षण मात्र से लेकर उत्कृष्टतः करोड़ पूर्व तक रह सकता है और बहुकालिक द्रव्यानन्द उत्कृष्टतः ३३ सागरोपम तक रह सकता है। द्रव्यानन्द का आधार बाह्य द्रव्य है, जोकि निमित्त है, उसका उपादान तो औदयिक भाव है। इस कारण वह सादि-सान्त आनन्द कहलाता है। भावानन्द में औदयिक भाव की मुख्यता नहीं होती। इस कारण वह दो प्रकार का होता है-सादि-सान्त और सादि-अनन्त। सम्यक् दृष्टि जीव जब तक आर्त्त-रौद्रध्यान से रहित होता है, तब तक भावानन्द चालू रहता है। औपशमिक और क्षायोपशमिक भाव में सम्यक् दर्शन तथा सम्यक् चारित्र का जब लाभ होता है, तब अलौकिक आनन्द की अनुभूति होती है। वह आनन्द सादि-सान्त कहलाता है। किन्तु जब आत्मा पूर्णतया क्षायिक भाव में पहुँचता है, तब वही आनन्द सादि-अनन्त बन जाता है। स्कन्द में अनन्त गुण आत्मा में सदैव एकरस रहता है।२४ नन्दीसूत्र : द्रव्यानन्द और भावानन्द का असाधारण निमित्त
नन्दीसूत्र मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान एवं केवलज्ञान, इन पाँच प्रकार के ज्ञान का परिबोधक है। श्रुतज्ञान क्षायोपशमिक होता है, अतः तज्जन्य आनन्द भी क्षायोपशमिक होने से सादि-सान्त है। किन्तु केवलज्ञान क्षायिक होने से इसके द्वारा सादि-अनन्त आनन्द की ओर जब गति-प्रगति होती है, तब वह सादि-सान्त आनन्द असीम हो जाता है। सादि-अनन्त हो जाने का अर्थ है-अपूर्ण आनन्द का पूर्णता को प्राप्त हो जाना। इसी पूर्ण आनन्द को अनुपम, अविनाशी, सदाकाल स्थायी, एक मात्र ज्ञान ही ज्ञान का शाश्वत आनन्द-नित्यानन्द भी कहा जाता है। अतः नन्दीसूत्र द्रव्य और भाव दोनों प्रकार के आनन्द का असाधारण निमित्त कारण है। नन्दीसूत्र द्वारा अज्ञात ज्ञाननिधि को पाने से असीम आनन्द की प्राप्ति
नन्दीसूत्र एक प्रकार से समग्र ज्ञान का विश्वकोश है; ज्ञान की अपार निधि है। किन्तु संसारस्थ एवं छद्मस्थ व्यक्तियों को आत्मा में निहित अनन्त शुद्ध ज्ञान के खजाने का पता नहीं है। ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय कर्म के बन्ध तथा मोहनीय कर्म के बन्ध के कारण संसारी छद्मस्थ जीव को अपनी आत्मा में दबे, छिपे, सुषुप्त अनन्त ज्ञान की निधि का भान नहीं होता। जैसे चिरकाल से खोई हुई या भूली हुई निजी अमूल्य निधि के मिल जाने या ज्ञात हो जाने पर व्यक्ति
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