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* २६४ * मूलसूत्र : एक परिशीलन
इस प्रकार का भेदविज्ञानरूप आचरण करना-दूसरे शब्दों में कहें तो-अपने आत्म-भाव-स्व-भाव में ही-ज्ञान-भाव में रमण करना ही चारित्र है। स्कन्धक अनगार के शिष्यों को जब घाणी में पिलाया जा रहा था, उस समय देहाध्यास से ऊपर उठकर उन्होंने देहात्म भेदविज्ञान जीवन में उतार लिया था। गजसुकुमार अनगार के मस्तक पर जब खैर के धधकते अंगारे सोमिल ब्राह्मण द्वारा रखे गये थे, तब देहात्म-बुद्धि छोड़कर वे भी एक मात्र आत्म-भाव में तल्लीन हो गये थे। विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने एक बार अपनी पत्नी को पत्र लिखा- “आज मुझे एक जहरीले बिच्छू ने काटा, उसकी तीव्र वेदना है, फिर भी पास में खड़े तीसरे व्यक्ति-डॉक्टर की तरह इस वेदना को मैं अपने से अलग निकालकर देखता/सोचता हूँ कि यह वेदना मेरी नहीं है। इस प्रकार देहदशा में से निकलकर मैंने देहात्म-बुद्धि के त्याग का अनुभव किया।" सचमुच, इस प्रकार भेदविज्ञान की तीव्र दशा का नाम ही चारित्र है, जो ज्ञान की तीव्र दशारूप है।२३ आत्मिक समृद्धि चतुष्टयरूप ज्ञान के प्ररूपक नन्दीसूत्र नाम सार्थक है
इस प्रकार ज्ञान प्रकाश, आनन्द (अव्याबाध सुख), आत्मिक शक्ति और भाव-चारित्ररूप होने से ज्ञान में ही आत्मा की भाव-समृद्धिरूप चारों गुणों का समावेश हो जाता है। इसी दृष्टि से नन्दीसूत्र में आत्मा की गरिमामय भाव-समृद्धिरूप पंचविध ज्ञान का सांगोपांग वर्णन किया गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो 'नन्दी' शब्द पाँच ज्ञान का सूचक है। कारण में कार्य का उपचार करके ज्ञान को आत्मिक समृद्धि-चतुष्टयरूप अनुभव करके प्रस्तुत शास्त्र का नाम 'नन्दीसूत्र' रखा गया है। नन्दीसूत्र : पंचविध ज्ञान प्ररूपणा से भावानन्द का कारण
प्रकारान्तर से देखा जाये तो 'आनन्द' शब्द भी 'टुनदि क्रिया' से निष्पन्न हुआ है। इस अपेक्षा से पंचविध ज्ञान प्ररूपक जो आगम परम आनन्द का कारण हो, उसे 'नन्दी' कहना अनुपयुक्त नहीं है। आनन्द दो प्रकार का होता है-द्रव्य-आनन्द और भाव-आनन्द। इन्हीं को दूसरे शब्दों में लौकिक और लोकोत्तर, व्यावहारिक और पारमार्थिक अथवा भौतिक और आध्यात्मिक आनन्द भी कहा जा सकता है। इन दोनों में दो प्रथम कोटि का आनन्द कर्मोदयजन्य है, जबकि दूसरी कोटि का आनन्द कर्मजन्य या उदयजन्य नहीं है; वह वस्तुतः आत्मा का निज गुण है। इनमें द्रव्य-आनन्द अल्पकालिक और
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